- डॉ. परदेशीराम वर्मा
कुछ घटनाएं इस तरह घटी -
1. तब चंदैनी गोंदा की खूब ख्याति थी । छत्तीसगढ़ में मंचीय जागरण का शंखनाद हो चुका था । दाऊ रामचन्द्र देशमुख की इस कृति से सभी प्रभावित थे । एक दिन दाऊ महासिंह चन्द्राकर अपनी गुणी बिटिया ममता को लेकर दाऊ रामचंद्र देशमुख के पास गये, लेकिन दाऊ रामचंद्र देशमुख की ओर, से उन्हें कोई प्रोत्साहन नहीं मिला ।
२. डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा को दाऊ रामचंद्र देशमुख ने ओपन एयर थियेटर के कार्यक्रम में अतिथि बना लिया । डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा स्कूटर चलाकार रायपुर से भिलाई कार्यक्रम स्थल तक आये भी लेकिन उपेक्षा से आहत होकर वापस लौट गये ।
३. चंदैनी गोंदा के सर्जकदाऊ रामचंद्र देशमुख से समकालीन कवि और बहुतेरे कलाकारों को भी भरपूर तवज्जो नहीं मिली । यह स्वाभाविक ही था । एक झन लइका, अउ गांव भर के टोनही । एक प्रस्तुति और सैकड़ों गुणी लोग । प्रतिभा की धरती छत्तीसगढ़ को दाऊ सम्हाल भी पाते तो कैसे । चाहते तो थे सबको जोड़ना मगर दाऊ रामचंद्र देशमुख को अपनी रूचियां और सीमाएं भी थीं ।
इस तरह सुगबुगाहट शुरू हुई । सबसे पहले दाऊ महांसिंह चन्द्राकर ने ऐलान किया कि एक अन्य भव्य प्रस्तुति को वे आकार देंगे । दुर्ग के युवा कवि मुकुन्द कौशल के पास संदेश लेकर एक व्यक्ति गया । मुकुन्द और कुछ मित्रों की बैठक हुई । मुकुन्द के पास एक कहानी थी । उस छत्तीसगढ़ी कहानी का शीर्षक था केरवंछ । केरवंछ का अर्थ होता है, कालिख । धुंए से जो काली परत जमती है उसे केरवंछ कहते हैं । कहानी सुनकर दाऊ महासिंह चंद्राकर प्रसन्न हो गये । कहानी में छत्तीसगढ़ में बाहरी लोगों के बढ़ते प्रभाव पर टिप्पणी थी । छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों का दर्द था कहानी में ।
दूसरी बैठक हुई । कहानी तो सबको ठीक लगी मगर समस्या ही समस्या थी कहानी में निदान का अभाव सबको अखरा । आखिर तय हुआ कि निदान जोड़ा जाए । मगर जुड़े कैसे ?
अचानक एक दिन दाऊ महासिंह चंद्राकर अपनी बेटी रानी को लेकर रायपुर में आयोजित कत्थक नृत्य देखने गये । मुकुन्द कौशल को भी वे साथ ले गये । भोजन हुआ गिरनार हॉटल में । भोजन कर वे नीचे उतरे तो सामने से डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा गुजरे । तब डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा केवल मुकुन्द कौशल के आत्मीय थे । दाऊ जी से उनका परिचय नहीं हुआ था । मुकुन्द कौशल ने आगे बढ़कर डॉक्टर साहब का अभिवादन किया । फिर दाऊ जी से उनका परिचय कराया । दाऊ जी यह जानकर और प्रभावित हुए कि डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा स्वामी आत्मानंद जी के अनुज हैं ।
बहुत आग्रह के साथ डाक्टर नरेन्द्र देव वर्मा सबको बैजनाथ पारा अपने घर ले गये । चाय, पानी के बाद दाऊ महासिंह चंद्राकर ने बताया कि कहानी में समस्या का हल ढ़ूंढ़ रहे हैं । आपकी कृपा हो तो हल भी निकल आए । दाऊजी की चिंता देख डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा उठ खड़े हुए । अपने रीडिंग रूम से वे एक पुस्तक लेकर लौटे । पुस्तक का नाम था सुबह की तलाश । यह चर्चित उपन्यास कोर्स में लगा हुआ था । साप्ताहिक हिन्दूस्तान में तो यह पहले ही धारावाहिक छपकर देशभर में चर्चित हो चुका था । डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने कहा यह उपन्यास है इसे ले जाइए । पढ़िए । शायद हल निकल आये ।
छत्तीसगढ़ की पृष्ठ भूमि पर प्रकाशित यह उपन्यास सबको भा गया । तय हुआ कि केरवंछ पूर्वाध में हो और सोनहा बिहान उत्तरार्ध में । यही क्रम भी है । केरवंछ ही तो होता है शुरू में । स्वर्ण विहान तो अंधेरे को चीरकर जब सूरज निकलता है तब होता है । बात बन गई । तैयारी होने लगी । कलाकार दाऊ महासिंह के दुर्ग वाले बांड़ा में लोग जुटने लगे सदाव्रत चलने लगा । लंगर खुल गया । हर कलाप्रेमी, कलाकार, साहित्यकार वहां मान पाने लगा । दाऊ महासिंह चंद्राकर की पत्नी गयावती जी मातृवत् सबका ख्याल रखने लगीं ।
इस तरह हुआ लोकमंच का सोनहा बिहान । पहला प्रदर्शन दाऊ जी ने रखा ओटेबंद में । दाऊ रामचंद्र देशमुख को न्यौता दिया गया । वे लोकमंच के अगुवा जो थे । छत्तीसगढ़ में खेत जोतने जब दो भाई जाते हैं, तब आगे का भाई माई नांगर अर्थात् बड़ा हल थामता है । पीछे का छोटा नांगर अर्थात् छोटाहल छोटाभाई थामता है । नाचा के मंच पर लोक जीवन की छवि प्रस्तुत करने वाले कलाकार इस पर भावनापूर्ण टिप्पणी करते हैं । विदा होती छोटी बहन बनी कलाकार विलाप करता है भाई होतेव ते तोर पीछू-पीछू छोटे नागर ल थामतेव भइया ..... ! दाऊ महासिंह चंद्राकर ने इसीलिए बड़े भाई लोकमंचीय पुरोधा दाऊ रामचंद्र देशमुख को न्यौता दिया । वे बस में अपने कलाकारों को भरकर ओटेबंद पहुंचे । प्रदर्शन देखकर दाऊ रामचंद्र देशमुख गद्गद हो गये ।
उन्होंने जी भर कर तारीफ की । यहां से सोनहा बिहान के सिलसिलेवार प्रदर्शन की शुरूआत हुई । विद्धवान लेखक डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा सोनहा बिहान का संचालन करते थे । वे पर्दे के पीछे से उद्घोषणा करते । श्रोता विमुग्ध होकर इधर-उधर देखते कि, यह सम्मोहित करने वाला स्वर है किसका, लेकिन ऋषि परम्परा के लेखक डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा कभी सामने नहीं आते थे । वे नेपथ्य में ही रहे ।
टाटानगर में बरसते पानी में सोनहा बिहान का विराट प्रदर्शन हुआ । पूरे छत्तीसगढ़ में सोनहा बिहान की धूम मच गई । इसके लिए मुकुन्द कौशल ने विशेष रूप से गीतों का लेखन लिखा । मुकुन्द कौशल प्रारंभ में सोनहा बिहान के लेखक, निर्देशक और कोरियोग्राफर के साथ गीतकार भी थे । ओटेबंद में मुख्य नर्तक नहीं आया तो मुकुन्द मंच पर खूब थिरके । कुछ इस तरह थिरके कि मुख्य नर्तक घबराकर दूसरे प्रदर्शन में मंचासीन हो गया ।
सोनहा बिहान में छत्तीसगढ़ के विशिष्ट गायक केदार यादव के स्वर का स्वर्ण बिहान हुआ । भरावदार आवाज में जब केदार ने मुकुन्द के गीतों को गाया तो छत्तीसगढ़ सुध-बुध खो बैठा । रेडियो में ये गीत लगातार बजे । केदार तब तक केवल तबला वादक थे । मुकुन्द के माध्यम से वे सोनहा बिहान में आये और प्रख्यात गायक बने । मूड़ में आने पर केदार मुकुन्द के पावों में झुककर कहते थे कि भैया ने तबलची को गायक बना दिया । छत्तीसगढ़ की प्रख्यात गायिका ममता चंद्राकर का स्वर भी सोनहा बिहान में ही फूटा ।
यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि है । पिता महासिंह जानते थे कि ममता आने वाले समय की गायिका है । दाऊ रामचंद्र देशमुख ने अगर ममता को अवसर दिया होता तो केवल ममता का भविष्य बनता लेकिन सैकड़ों कलाकारों का भाग्य संवारना था । इसलिए सोनहा बिहान ने आकार ग्रहण किया । दाऊ रामचंद्र देशमुख भी सिद्ध पुरूष थे । वे शायद दाऊ महासिंह के भीतर तड़प देख रहे थे । उन्होंने जी कड़ाकर दाऊ महासिंह चन्द्राकर जैसे समर्थ व्यक्ति को उकसाया और उनका सपना सच हुआ । अब छत्तीसगढ़ महतारी के चरणों में मंचीय चंदैनी गोंदा तो चढ़ ही रहा था । छत्तीसगढ़ में मंचीय स्वर्ण बिहान भी होने लगा । लेकिन अब नई चुनौतियां सामने आने लगी । सोनहा बिहान में नये लोग आते गये । मुकुन्द कौशल की भूमिका सीमित होती गई । यह स्वाभाविक भी था । परती जमीन को जोतने के दिनों का वातावरण और सरसब्ज खेत में फसल उगाने का उल्लास अलग-अलग होता है ।
मुकुन्द ठहरे भावुक कवि । वे आहत हो गये । दाऊ जी का आंगन उन्होंने छोड़ दिया । इस तरह सोनहा बिहान से अलग होकर मंचीय महारथियों ने एक और मंच को आकार दिया । नाम रखा गवा बिहान । नवा बिहान के मुख्य गीतकार मुकुन्द कौशल थे । केदार का प्रमुख स्वर था । खूब धूम रही नवा बिहान की ।
इसी बीच १९७८ में मुकुन्द भाई नौकरी के लिए दुबई चले गये । १९८१ में वे लौटे । मुकुन्द भाई फिर दस वर्षो तक कचहरी रोड की अपनी दुकान म्यूजिको सेन्टर में रमे रहे । दुबई से लौटकर १९८१ में आये तो उन्हें यह जानकर गहर धक्का लगा कि डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा अब नहीं रहे । ८ सितम्बर १९७९ को वे परलोक गामी हो गये थे ।
मुकुन्द कौशल रायपुर जाकर परिवार के लोगों से मिलकर शोक प्रकट करना चाहते थे । वे ढाढंस बंधाने गये थे लेकिन घर की देहरी पर डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की धर्मपत्नी आदरणीया भाभी जी को सफेद साड़ी में अचानक अपने सामने देखकर मुकुन्द बच्चों की तरह रो पड़े । घर के लोगों ने रोते हुए मुकुन्द को सम्हाला ।
मुकुन्द कौशल को डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का असीम प्यार मिला था । उम्र का फासला लांघकर दोनों चार-चार घण्टों तक साहित्य एवं लोकमंच पर चर्चा करते रहते । डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा मुकुन्द की प्रतिभा के प्रशंसक थे । बिहारी लाल साहू, उन दिनों डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के शिष्य थे । वे पी.एच.डी. कर रहे थे । मुकुन्द और बिहारी लाल साहू के साथ डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा घण्टों बैठकर साहित्य चर्चा करते ।
डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के द्वारा प्रस्तुत ज्ञान के उजास से मुकुन्द जैसे सैकड़ों रचनाकारों के जीवन में सफलता का सोनहा बिहान हुआ है ।
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