Saturday, July 26, 2008

सात संस्‍मरण

दाऊ वासुदेव चंद्राकर की मारक मुस्कान और हार जीत : डॉ. परदेशीराम वर्मा

सब जानते हैं कि दाऊ वासुदेव चंद्राकर तुलसीभक्त थे। इसीलिए हुडको के अगासदिया मंदिर में उनके प्रिय महाकवि तुलसीदास की मूर्ति स्थापित है। यह मूर्ति स्थापना के दिनों की बात है। स्थापना समारोह के तीन दिन पूर्व अचानक एक शासकीय चिकित्सक कुछ काम लेकर मेरे पास आये। वे दाऊ वासुदेव चंद्राकर से मिलकर अपनी समस्या बताना चाहते थे। चिकित्सक बंधु के साथ मेरा संबंध हमप्याला हमनिवाला का था। वे किसी मस्तीभरी पार्टी का न्यौता लेकर आये थे। हम दोनों पार्टी में गये। मित्र जातने थे कि मैं मुंह भर जुठारता हूं। उनके आग्रह पर मैंने भी साथियों के साथ आनंद लिया। जब चिकित्सक मित्र सुरुर में आये तो उन्होंने कहा - भाई अभी आठ बजा है। दाऊ जी सोये नहीं होंगे। चलो उन्हें प्रणाम कर आते हैं।

मैंने कहा - ऐसी हालत में मैं प्रणाम करने नही जा सकता। वे मुझे पुत्रवत मानते हैं डाक्टर मित्र ने कहा - बस यही तो आपकी विशेषता है। आप पीते ही कहां है, नशे में तो आप आते ही नहीं। वे भला कब जानेंगे कि आप मस्ती में हैं। एक चम्मच लेकर आप और गंभीर हो जाते हं। चलिए आज हो ही जाय प्रणाम करने का कार्यक्रम।

मैंने फिर कहा कि वे उड़ती चिड़िया का पंच गिन लेते हैं। मुझे मत ले जाओ। देशी, परदेशी सबको पचाकर इतिहास रचने वाले दाऊ जी देखते ही ताड़ लेंगे। डाक्टर ने कहा - चलिए, लगी शर्त, अगर वे आपको जाड़ गये तो एक पार्टी मैं दूंगा, लेकिन आप सदैव की तरह सम्हलकर बोलना-बताना।

इस तरह शर्त बदकर जब हम दाऊ वासुदेव चंद्राकर के घर गये तो वे भोजन के बाद अपने कक्ष में बैठकर कुछ पढ़ रहे थे। सदैव की तरह मुझे देखकर वे पुलकित हो गये। घर की ओर मुखातिब होकर उन्होंने जोर से कहा - परदेशी के लिए भी खाना लाओ। मेरे बहुत इन्कार करने पर भी भजिया बनवाकर लाने का आदेश दाऊजी ने दे दिया। गर्म-गर्म भजिया पाते ही डाक्टर साहब भिड़ गये। दाऊजी ने मुझे बधाई देते हुए कहा कि - तुलसीदास युग कवि हैं। उनका मंदिर बनाकर तुमने वो काम किया है, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है। भगवान तुम्हें सदा सुखी रखे। हम लोग चुपचाप सुनते रहे। अचानक मेरे मुंह से निकल गया कि, दाऊ जी मैं तो कबीर को बड़ा मानता हूं। वे समाज सुधारक और क्रांतिकारी थे।

दाऊजी ने कहा कि तुलसी ने समाज को साहस दिया। टूटने से बचाया, एकजुट किया। मैंने कहा कि कबीर ने दाऊ जी पाखंड और जाति व्यवस्था पर चोट किया। वे बड़े योद्धा थे। बहस चल पड़ी। लगातार वे गोस्वामी तुलसीदास का पक्ष लेते और मैं कबीर का यशगान करता। डाक्टर घबरा से गये। अचानक दाऊ जी ने मुझे भर नजर देखा। फिर दाऊजी ने हंसते हुए कंधे पर हाथ रखकर कहा - आज तो परदेशी तुम्हारे कबीर ही जीतेंगे। कल आओगे न सबेरे, तब तुलसी की जीत भी होगी।

मुझे काटो तो खून नहीं। मैंने डाक्टर की ओर देखा। वे सकुचाये हुए बैठे थे। दाऊ जी के इस कथन के बाद मैंने हथियार डाल दिया। उन्हें प्रणाम कर चुपचाप हम घर से बाहर आ गये। रास्ते में मैंने डाक्टर को पूछा कि अब बताओ दाऊ जी ने सुरुर को ताड़ लिया कि नहीं। डाक्टर ने कहा कि पूरी तरह मैं आश्वस्त नहीं हो पा रहा। उनके कहने का यह अर्थ भी हो सकता है कि बहस लम्बी होगी। तब कल तुलसीदास की जीत होगी।

मैंने कहा डाक्टर साहब पार्टी देने के डर से भागिये नहीं। वे दाऊ वासुदेव चन्द्राकर हैं। उन्हें ताड़ने में एक पल नहीं लगा। सुरुर में झूमने वालों को सम्हालते हुए ही तो वे वर्षो से हम सबका नेतृत्व कर रहे हैं।

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दाऊजी का आकर्षक प्रस्ताव और मेरी युक्ति

दाऊ वासुदेव चंद्राकर का अध्ययन गहरा था। वे समय निकाल कर किताबें बढ़ते थे। उन्हें लगातार विपरीत परिस्थितियों में राह बनाने का यत्न करने वाले लोग भाते थे। मैं चंदूलाल चंद्राकर जी से पहले जुड़ा। बाद में दाऊ वासुदेव चंद्राकर से जुड़ा। वे मेरी पिता के उम्र के थे और पितृवत मुझे स्नेह भी देते थे। अपने लोग-दो किताब में दाई के बहाने जब मेरा जीवन संघर्ष सामने आया तो दाऊजी का स्नेह मुझ पर और बढ़ गया। एक दिन उन्होंने कहा कि साहित्य तो ठीक है मगर मुझे राजनीति में आकर समाज की सेवा करनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति में उचित महत्व और स्थान दिलाना उनकी जिम्मेदारी है।

प्रस्ताव सुनकर मैं चुप रह गया। फिर कई अवसरों पर उन्होंने मुझे कहा कि मैं राजनीति में क्यों नहीं आना चाहता। मैंने कहा कि दाऊजी, बस आप मेरी एक शर्त भर पूरी कर दीजिए।
क्या ?, दाऊजी ने पूछा।

मैंने कहा - आप तीन चार कहानियां लिख दीजिए।

मेरे इस प्रस्ताव पर उन्होंने सिर की टोपी को धीरे से उतार कर बगल में रख दिया। फिर पीठ पर एक धौल जमाकर कहा - तुम मुझे इसीलिए प्रिय हो। कड़वी बात भी नहीं कहते और बात स्पष्ट भी हो जाती है। अब आज से मैं तुम्हें राजनीति में आने के लिए नहीं कहूंगा। मेरा आशीर्वाद है तुम्हें, अपने क्षेत्र में ही खूब यश मिलेगा जिससे सब गौरव महसूस करेंगे।

डॉ. परदेशीराम वर्मा
एल.आई.जी.-१८,
आमदी नगर, हुडको-भिलाई


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जीवन सूत्र के व्याख्याकार : डॉ. परदेशीराम वर्मा

दाऊ वासुदेव चंद्राकर धरती पुत्र थे। उनकी सोच किसानों जैसी थी। वे हवा में न उड़ते थे न उड़ने वालों को पसंद करते थे। एक अवसर पर मैंने भिलाई इस्पात संयंत्र के गैर छत्तीसगढ़ी रंग ढंग पर दाऊजी से शिकायती लहजे में कुछ अधिक ही कह दिया। वे ध्यान से बात सुनते रहे फिर बोले - पहली नौकरी छोड़ गा। त्याग करे बिना छत्तीसगढ़ के भला नई होय। छोड़ नौकरी अऊ तब दे लात।

दाऊजी के आदेश पर मैंने २००२ में ५ वर्ष की उम्र में नौकरी छोड़ दी। लोगों ने लाख पदोन्नति, पैसा और सुविधा का वास्ता दिया लेकिन मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

दाऊजी ने नौकरी छोड़ने के मेरे संकल्प के महत्व को २००३ में पाटन के एक बड़े समारोह में रेखांकित किया। २००३ में ही मुझे रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से डी.लिट. की मानद उपाधि दी गई। इसी खुशी में श्री भूपेश बघेल ने सम्मान समारोह आयोजित किया था।

दाऊ जी ने कहा - छोटा सा दिखने वाला त्याग ही व्यक्ति को बड़प्पन की राह पर ले जाता है। मेरा आशीर्वाद सदा परदेशीराम के साथ रहेगा।


डॉ. परदेशीराम वर्मा
एल.आई.जी.-१८,
आमदी नगर, हुडको-भिलाई


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सहारा छूट गया : डॉ. परदेशीराम वर्मा

मेरा पांव दुर्घटना में टूट गया। भाई देवदास बंजारे उसी दुर्घटना में सतलोक गमन कर गये। दाऊ जी प्रतिमा बहन के साथ अस्पताल पहंुचे। आते ही मेरे सिर पर हाथ रखकर उन्होंने कहा - बहादुर अस तंय हर ग, फेर दौड़बे।

आपरेशन टेबल पर लेटते समय मुझे जो चन्द आशीष और शुभ कामनाओं से भरे वाक्य याद आते रहे उनमें दाऊजी के मुंह से निकला यह वाक्य सर्वाधिक सम्बल प्रदान करता था।
डॉ. खूबचंद बघेल समारोह २००६ का आयोजन मैंने कूर्मि भवन में किया। चार पांवों वाले विशेष सटका के सहारे चलकर मैं वहां गया। दाऊजी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा - इहू छूट जही जल्दी।

संयोग ही कहिए कि दाऊजी के दिवंगत होते ही मैंने बिना सहारे के ही चलने का प्रयास शुरु कर दिया। दाऊजी का सहारा छूटा तो मुझे दुष्यंत का यह शेर याद हो आया ...

वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।

डॉ. परदेशीराम वर्मा
एल.आई.जी.-१८,
आमदी नगर, हुडको-भिलाई





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वरदपुत्र पर विश्वास : डॉ. परदेशीराम वर्मा

दाऊजी के जीते जी मैंने कभी लक्ष्मण भाई से उनके घर में बैठकर बात नहीं किया। लक्ष्मण भाई आज उलाहना के स्वर में यह कहते भी हैं कि तब तो तंय सीधा दाऊ जी करा जास गा, हमला कहां देखस।

यह सच भी है।

एक अवसर पर लक्ष्मण भाई ने मुझे कहा कि चंदूलाल चंद्राकर जी की मूर्ति बन रही है उस पर साठ हजार खर्च होगा। आप दाऊजी से कहकर दिलवा दीजिए।

लक्ष्मण के इस कथन का चाहे जो उद्देश्य रहा हो मगर यह सोचकर मैं उत्फुल्ल हो गया कि मैं ही दाऊ जी का परदपुत्र हूं यह लक्ष्मण ने स्वीकार लिया।
डॉ. परदेशीराम वर्मा
एल.आई.जी.-१८,
आमदी नगर, हुडको-भिलाई



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परिपक्‍व बच्‍चे को भरपूर आशीष : डॉ. परदेशीराम वर्मा

दो अवसरों पर दाऊ जी ने मुझे कहा कि मैं बच्चे की तरह लगता हूं। एक अवसर वह था जब मेरे नाती नीतीश का जन्मोत्सव मनाया गया। दूसरा अवसर मेरी षष्ठी पूर्ति का था। १८ जुलाई २००७ को मेरी षष्ठी पूर्ति समारोह में आशीष देने दाऊजी पधारे। उन्होंने कहा - परदेशी को मैं बच्चा समझता रहा मगर वह साठ साल का निकला।

यह सोचकर मुझे बल मिलता है कि अपने बच्चे को साठ वर्ष की परिपक्वता की उम्र में देखने के बाद दाऊ जी विदा हुए।

डॉ. परदेशीराम वर्मा
एल.आई.जी.-१८,
आमदी नगर, हुडको-भिलाई


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कबीराना अंदाज और दाऊजी : डॉ. परदेशीराम वर्मा

दाऊजी महासिंह चंद्राकर का अवसान हुआ। दाऊी की व्यथा छुपाये नहीं छुपती थी। बड़े भाई की छाया उनके सिर से चली गई थी। दाऊ महासिंह चंद्राकर उन्हें बच्चे की तरह प्यार करते थे। उन्होंने कभी वासुदेव नहीं कहा। वे अकेले व्यक्ति थे जो वासुदेव दाऊ का नामोल्लेख बासदेव करते थे। बासदेव ल केहेंव, बासदेव अइसे करिस आदि आदि।

दाऊ महासिंह चंद्राकर के गांव मतवारी में शोकांजलि दी गई। ममता ने श्रद्धा सुमन गीत के माध्यम से व्यक्त किया।

दाऊजी ने दो शब्दों में अपनी बात कहते हुए स्वयं को सम्हाला। इसी समारोह में नंदकुमार बघेल ने वह व्याख्यान दिया जिससे वातावरण थोड़ा बदला। नंदकुमार दाऊ कुशल वक्ता हैं। वे दाऊ वासुदेव चंद्राकर के अनन्य भी रहे। उनके सपूत भूपेश तो खैर वासुदेव चंद्राकर गुरुकुल के अर्जुन हैं ही।

दाऊ नंदकुमान ने कहा कि आज से तीस वर्ष पहले हम लोग दाऊ वासुदेव चंद्राकर के स्वास्थ्य को देखकर सोचते थे कि डोकरा के जीवन कहां लटके हे। उन्होंने आगे कहा कि प्रदीप चौबे और हम बात करते थे कि दाऊ वासुदेव चंद्राकर के रहते तो अपनी राजनीति चलेगी नहीं। स्वास्थ्य दाऊ का ठीक नहीं रहता। बस यही एक आशा है।

दाऊ वासुदेव चंद्राकर भाई की श्रद्धांजलि सभा में भी उक्ति से मुस्कुरा पड़े थे। लेकिन मुझे बहुत अच्छा नहीं लगा था। मैंने कहा कि दाऊजी ये नंदकुमार दाऊ भी गजब कर देते हैं। समय कुसमय नहीं देखते। तब उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा - प्रदीप मेरे लिए पुत्रवत है। नंदकुमार दाऊ मेरे आत्मीय हैं। यह अदा है उनकी। इसे तुम धीरे धीरे समझोगे।

तब मैंने धीरे धीरे समझा कि हर बात को सकारात्मक ढंग से लेना दाऊ वासुदेव चंद्राकर की विशेषता थी।

डॉ. परदेशीराम वर्मा
एल.आई.जी.-१८,
आमदी नगर, हुडको-भिलाई

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