दाऊ छत्तीसगढ़ी भाषा का बड़ा प्यारा सा शब्द है। इस शब्द में आदर और सम्मान तो निहित है ही किन्तु इस शब्द के साथ जुड़ी हुई जो अपनत्व भावना है वह बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दाऊ शब्द से सम्बोधित, वासुदेव चन्द्राकर की पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर हम उन्हें पात्रानुसार अपना स्नेह, सम्मान एवं आशीर्वाद अर्पित करने हेतु उनका सानिध्य प्राप्त् कर रहे हैं। बड़ा खुशनुमा समय हे। लगता है प्रीति के निर्झर झर रहे हैं।
मैं दाऊ वासुदेव चन्द्राकर की जीवनी और उनकी उपलिब्धियों का कोई सिलसिलेवार ब्यौरा यहाँ पेश नहीं कर रहा मैं तो केवल उनके व्यक्तित्व की कतिपय जानी अनजानी गहराईयों को उकेरने का ही प्रयास कर रहा हंू। दधीचि की सी हडि्डयों वाला यह दुबला पतला व्यक्ति जांगर का बड़ा धनी है -
दिवस का अन्त आया पर डगर का अंत कब आया।
चलना इनका काम है, थक कर मंजिल पर बैठ जाना इनकी प्रकृति नहीं है। हमारा जो व्यक्तित्व हे वह हमारे धन, हमारे मकान, हमारे पद, हमारी प्रतिष्ठा और चतुर्दिक हमने अपने परायों के साथ, अपना जो घेरा बना लिया है - उस सबसे जुड़ हुआ है। मैंने पाया है कि वासुदेव जी ने अपने भीतर एक बोध विकसित कर लिया है, जीवन की गड्डमगड्ड बाह्य यात्रा के पर अपनी अंतरयात्रा के लिए, अंधेरे में प्रकाश की यात्रा पर जाने के लिए। मैं कौन हूँ यह जानने की आपकी आकांक्षा ने आपको हमारे धर्मग्रन्थों के साथ ऐसा जोड़ दिया है आप उनसे एकाकार हो गए हैं। वे पढ़ते बहुत कुछ हैं पर रामचरित मानस तो उनका आदर्श ग्रन्थ है, उनकी पूजा है, उनका मंदिर है। इसलिए जब के अपने लोगों के बीच होते हैं तब हमेशा एक हल्की सी मुस्कान के साथ सब का स्वागत करते हुए ऐसा कुछ अनुभव करते हैं-
आज धन्य मैं धन्य अति, यद्यपि सब बुद्धिहीन,
निज जन जानि राम मोहि, संत समागम दीन्ह।
ऐसा मिलन आपको बड़ा रास आता है।
ऐसा मिलन आपको बड़ा रास आता है।
वासुदेव चन्द्राकर जी ने अपनी कोई प्रतिमा नहीं गढ़ी है। प्रतिमा का मतलब ही है अचल, अपरिवर्तनीय। प्रतिमा का मतलब ही है पाषाण, पत्थर जिसमें कोई संवेदना नहीं होती।
इस स्थल पर मैं एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। बात जनवरी १९८२ की है। मैं रायगढ़ जिला में प्राचार्य के पद पर कार्यरत था। सेवा निवृत्ति का मात्र दो वर्ष शेष था। मैं दुर्ग जिले में आना चाहता था। मेरा मन ऐसा उचट गया था कि मैं तरकेला में रहना ही नहीं चाहता था। मैंने चन्द्राकर जी से आग्रह किया कि आप मुझे तत्काल दुर्ग जिले में पदस्थ करा दीजिये। सन् १९५० से अपनी निकटता के कारण ऐसे आग्रह के लिए मैं अधिकृत था। चन्द्राकर जी ने बात सुनी और अपनी चिरमुस्कान के साथ कहा कसार जी आपका काम मेरा काम है। पर एक बात है मार्च में परीक्षाएं शुरु हो रही है। यदि मुख्यमत्री ने कह दिया कि परीक्षा तक ठहर जाइए तो आपको तो मैं सूचित कर दूगा किन्तु मैं स्वत: आहत हो जाऊंगा। मैं सामान्यत: और विशेषत: आपके संबंध में नकारात्मक उत्तर नहीं सुनना चाहता। आप धैर्य धारण करें। अप्रैल में मैं आपका स्थानांतरण करवाने का वचन देता हूं। बात सही भी थी। पर मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं धैर्य धारण करने की मानसिक स्थिति में नहीं था। लेकिन मेरी धैर्यहीनता जीत गई। मेरा मनवांछित काम ईश्वरीच्छा और सतत प्रयास से हो गया। मैं दुर्ग आ गया। मगर चाहता था कि चन्द्राकर जी भी इस तबादले से मिली खुशी में शरीक हों। उन्हें यह न लगे कि लीजिये आपने नहीं की तब भी काम हो गया। उनकी सतर्कता से भी मैं प्रभावित हुआ था। मैंने २२ फरवरी १९८२ के दुर्ग जिले में कार्यभार ग्रहण किया और सबसे पहले चन्द्राकर जी को सूचना देने गया। चन्द्राकर जी ने प्रसन्नता जाहिर की और मैंने देखा कि उनके चेहरे पर बदलते हुए भावों की एक श्रृंखला निर्मित हो गई। भरपूर प्रसन्नता, फिर कुछ पछतावा और फिर एक पीड़ा का भाव आया कि कहीं कसार जी के द्वारा मैं गलत न समझ लिया जाऊं। यही उनके अन्तरमन की पीड़ा थी। उन्होंने मेरे साथ कोई खेल नहीं खेला था। किन्तु संवेदना के धरातल पर खड़े वासुदेव जी मेरे साथ की बात तो और अपने साथ ही कठोर नहीं हो सके। यह उनकी ऊँचाई का घोतक है। ऐसे संवेदनशीलता ही कठोर नहीं हो सके। यह उनकी ऊँचाई का घोतक है। ऐसे संवेदनशीलता पुरानी पीढ़ी के राजनेताओं के साथ ही शायद चली जाए। स्पष्टवादिता, साहसिकता और संवेदनशीलता के गुण अब देखने को नहीं मिलते।
वासुदेव का जीवन तो एक बहती हुई नदी के समान है। बहती हुई नदी किसी एक बंधी लीक पर नहीं चलती। उसे तो सागर का कोई पता नहीं है पर उसे अपना भरोसा है और होता क्या है ? नदी सागर में नहीं मिलती वरन वह स्वत: सागर हो जाती है। सागर हो जाना एक बड़ी बात है। वासुदेव चन्द्राकर जी अब सागर हो गए हैं। जिसमें सुख-दुख, आशा-निराशा, जीत-हार सब कुछ समाया हुआ है। वे एक रस हैं, एक स्वर हैं, वे गीत हैं, संगीत हैं उन्मत है। यह उन्मत्ता ही उनकी प्रौढ़ता है, परिपक्वता है। तो आओ हम भी उनके साथ झूमें ...
झूमे जाओ, क्षणभर भी यह मत पूछो,
छबि की पायल का नाद चलेगा कब तक
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक।
ज्ञान सर्वत्र प्रशंसनीय है किन्तु सामान्य व्यवहार में हमें बड़ी विपरीत परिस्थितियां देखने को मिलती है। हमारे चारों ओर ज्ञानियों की कमी नहीं है। हम देख रहे हैं कि ज्ञान आदमी को अहंकार की ही यात्रा करा रहा है। वह अहंकार को मजबूत कर रहा है। ज्ञान तो प्रकाश है किन्तु इस प्रकाश की किरणें अहंकार की दीवार को भेदने में असमर्थ है। ऐसा तभी होता है जब ज्ञान ऊपर से एकत्र किया गया हो। इसके विपरीत भीतर से आया हुआ ज्ञान व्यक्ति को निर-अहंकारी बनाता है, चैतन्य बनाता है, विनम्र बनाता है। वासुदेव चन्द्राकर विनम्र है।
सत्ता-सुख कौन नही चाहता। चन्द्राकर जी भी चाहते हैं और उसके लिए प्रयास भी करते हैं। सत्ता चाहे शासन की हो या पार्टी की वह सुख का श्रोत तो है ही। किन्तु जब बात व्यापक जन-हित की हो तो आप पार्टी या शासन की परवाह किये बिना कोई भी क्रांतिकारी कदम उठाने में नही चूकते। अंचल के उनके प्रियजनों ने वासुदेव चन्द्राकर को राजनीति के चाणक्य की संज्ञा से विभूषित किया है। इन सबने चन्द्राकर जी में चाणक्य के कितने गुण देख हैं, मैं नहीं जानता किन्तु एक बात तो तय है कि आप एक ऐसे चाणक्य हैं जो विरोधी को समाप्त् करने में अपनी ऊर्जा नष्ट नहीं करते। वे दूसरे की लकीर मिटाने की अपेक्षा अपनी लकीर बढ़ाने में विश्वास रखते हैं। यह उनकी अपनी विशेषता है कि वे जिस कार्य को हाथ में लेते हैं उसे वे अडिग रहकर दृढ़ता के साथ अंजाम देते हैं। वे इस बात को भलीभांति जानते हैं कि नींव का पत्थर बने बिना शिखर का स्वर्ण कलश नहीं बना जा सकता। समृद्ध एवं सम्पन्न परिवार के होते हुए भी वे अपने विचारों एवं कार्योंा में समाजवादी हैं। इसे कम लोग ही जानते हैं कि सन १९५० में श्यामाचरण कश्मीरी के द्वारा जब दुर्ग में पहली बार समाजवादी दल का गठन हुआ तब युवक वासुदेव चन्द्राकर उसके अध्यक्ष एवं कृष्णा सिंह वर्मा उसके प्रथम सचिव नियुक्त हुए थे और उस समिति की कार्यकारिणी के सदस्य के रुप में जुड़ा मैं स्वत: इसका साक्षी हूं। जिस समाजवादी विचारधारा की पृष्ठभूमि पर चन्द्राकर जी की राजनीतिक इमारत बनी है, आज भी वे उसे ही मजबूत करने में लगे हैं। गांधी जी से बड़ा समाजवादी और कौन होगा ? गांधी और गांधी विचारधारा में वासुदेव चन्द्राकर वेशभूषा, मन वचन व कर्म से उसी विचारधारा का प्रेषण कर रहे हैं। वे उसी में रम चुके हैं, पग चुके हैं और उसी विचारधारा में डूबते उतारते हैं और अब तो स्थिति यह है कि –
डूबना ही इष्ट हो जब, तो सहारा कौन मांगे ?
प्यार जब मझधार से हो, तो किनारा कौन मांगे ?
मेरे अपने वासुदेव चन्द्राकर के स्वस्थ सुखी एवं दीर्ण जीवन के लिए असीम प्यार एवं अशेष शुभकामनायें समर्पित हैं।
०००
Saturday, July 26, 2008
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