संत पवन दीवान की साधना स्थली : राजिम के देवालय
सोन्डूर-पैरी : महानदी संगम के पूर्व में बसा राजिम अत्यंत प्राचीन समय से छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दक्षिण कोशल के नाम से प्रख्यात क्षेत्र में प्राचीन सभ्यता, सांस्कृतिक एवं कला की अमूल्य निधि संजोये इतिहासकारों, पुरातत्वविदों और कलानुरागियों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है । जिले के मुख्यालय रायपुर से दक्षिण-पूर्व की दिशा में ४५ कि.र्मी की दूरी पर, देवभोग जाने वाली सड़क पर यह स्थित है।
श्राद्ध, दर्पण, पर्वस्नान, दान आदि धार्मिक कृत्यों के लिए इसकी सार्वजनिक महत्ता आंचलिक लोगों की परम्परागत आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास की स्वाभाविक परिणति के रुप में सद्य: प्रवाहमान है। क्षेत्रीय लोग इस संगम को प्रयाग संगम के समान ही पवित्र मानते हैं। इनका विश्वास है कि यहां स्नान करने मात्र से मनुष्य के समस्त कल्मष नष्ट हो जाते हैं तथा मृत्योंपरांत वह विष्णुलोक प्राप्त् करता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में महानदी का वही स्थान है जो संपूर्ण देश में गंगा का है। यहां का सबसे बड़ा पर्व महाशिवरात्रि है। पर्वायोजन माघ मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि (कृष्णपक्ष-त्रयोदशी) तक चलता है। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के कोन-कोन से सहस्त्रों यात्री संगम स्नान करने तथा भगवान राजीवलोचन एवं कुलेश्वर महादेव के दर्शन करने आते हैं। क्षेत्रीय लोगों की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा उस समय तक सम्पूर्ण नहीं होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नहीं कर लेता।
राजिम से लगे हुये पितईबंद नामक ग्राम से प्राप्त् मुद्रानिधि द्वारा पहली बार क्रमादित्य नामक सर्वथा अज्ञात नरेश की ऐतिहासिकता प्रकाश में आयी है, साथ ही महेन्द्रादित्य के साथ उसके पारिवारिक संबंध का होना भी प्रमाणित हो सका। महाशिव तीवरदेव का जो ताम्रपत्र राजिम विलासतुंग के नलवंश की इतिवृत्ति के ज्ञान का एकमात्र साधन राजीवलोचन मंदिर से प्राप्त् शिलालेख है। रतनपुरी के कलचुरी नरेश जाजल्यदेव प्रथम एवं रत्नदेव द्वितीय की कतिपय ऐसी विजयों का उल्लेख, उनके सामन्त जगपालदेव के राजीवलोचन मंदिर से ही प्राप्त् अन्य शिलालेख में हुआ है। यहाँ के मंदिर एवं देव-प्रतिमाएं लोगों की धार्मिक आस्था पर प्रकाश डालती हैं, साथ ही भारतीय स्थापत्यकला एवं मूर्तिकला के इतिहास में छत्तीसगढ़ अंचल के ऐश्वर्यशाली योगदान को लिपिबद्ध करते समय अपने लिए विशिष्ट स्थान की अपेक्षा रखने वाले उदाहरण है। सामान्य सर्वेक्षण में यहाँ के सांस्कृतिक अनुक्रम का अनुमानित कालक्रम निर्धारित कर पाना संभव हो सका है।
इस मृण्य अवशेषों के अध्ययन-परीक्षण द्वारा ही अब राजिम में पल्लववित संस्कृति का प्रारम्भ चाल्कोलिथिक युग में होना सम्भावित सत्य के रुप में घोषित किया गया है।
राजिम के देवालय ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। इन्हें हम इनकी स्थिति के आधार पर अधोलिखित चार वर्गोंा में विभक्त कर सकते हैं -
(अ) पश्चिमी समूह : कुलेश्वर (९वीं सदी), पंचेश्वर (९वीं सदी) तथा भूतेश्वर महादेव (१४वीं सदी) के मंदिर।
(ब) मध्य समूह : राजीवलोचन (८वी सदी), वामन, वाराह, नृसिंह, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, राजेश्वर, दानेश्वर एवं राजिम तेलिन मंदिर।
(स) पूर्वी समूह : रामचन्द्र (१४वीं सदी) का मंदिर।
(द) उत्तरी समूह : सोमेश्वर महादेव का मंदिर।
नलवंशी नरेश विलासतुंग के राजीव लोचन मंदिर अभिलेख के आधार पर अधिकांश विद्वानों ने इस मंदिर को ८वीं शताब्दी की निर्मिति माना है। इस मंदिर के विशाल प्राकार के चारों अंतिम कोनों पर बने वामन, वाराह, नृसिंह तथा बद्रीनाथ के मंदिर स्वतंत्र वास्तुरुप के उदाहरण माने जा सकते । ये मुख्य मंदिर के अनुषंगी देवालय है। राजिम के देवालय सामान्यत: ८वीं शताब्दी से लेकर १४वीं शताब्दी के बीच के बने हुए हैं।
राजीवलोचन का मंदिर :-
एक विशाला आयताकार प्राकार के मध्य में बनाया गया है। भू-विन्यास योजना में राजीव लोचन का मंदिर-महामण्डप, अन्तराल, गर्भगृह और प्रदक्षिणापथ, इन चार विशिष्ट अंगों में विभक्त है।
महामण्डप - नागर प्रकार के प्राचीन मंदिरों में महामण्डप सामान्यत: वर्गाकार बनाये जाते थे, परंतु राजिम के प्राय: सभी मंदिरों की ही भाँति इस मंदिर का यह महामंडप भी आयताकार है। महामण्डप के प्रवेश-द्वार की अन्त:भित्ति कल्पलता अभिकल्प द्वारा अलंकृत है। लतावल्लरियों के बीच-बीच में विहार-रत यक्षों की विभिन्न भाव-भंगिमाओं तथा मुद्राओं में मूर्तियाँ उकेरी गयी है। कहीं-कहीं मांगल्य विहगों का भी रुपायन है।
जहाँ से कल्पलता अभिकल्प के बाँध को प्रारंभ किया गया है। उसके नचे हरि हंस (दिव्यासुपर्णा:) का मोती चुगते हुए अत्यंत ही अलंकरणात्मक ढंग से रुपायन है।
बाँयी पार्श्व भित्ति के प्रथम भित्ति स्तम्भ पर प्रभा-मंडप युक्त पुरुष की खड़ी प्रतिमा है जिसके एक हाथ में धनुष है तथा दूसरा हाथ कमर पर है। इस मूर्ति के कमर पर कटार बंधा हुआ है तथा यह सिर में मुकुट, भुजाओं में भुजबंध, हाथ में कड़े, कानों में कुन्डल, गले में हार, स्कंध पर लटकता यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है। तीसरे भित्ति-स्तंभ पर पत्र-पुष्प से आच्छादित (अशोक) वृक्ष के नीचे त्रिभंग मुद्रा के निर्देशक रुप में है तथा दूसरा हाथ पार्श्व में खड़े पुरुष के स्कंध को लपेटे हुए दिखाया गया है। पुरुष मूर्ति में प्रथम की प्रतिमा लक्षणों का अभाव है, परंतु वह नारी मूर्ति की तुलना में अपेक्षाकृत लघुकाय वाली है। इस पुरुष को हाथ में सर्प थामें हुए अभिव्यक्ति किया गया है। लोग अज्ञानतावश इसे सीता की प्रतिमा मानते हैं। परन्तु वस्तुत: यह श्रृंगारिक भावनाआें से संबंधित मूर्ति है। सर्पयुक्त पुरुष काम का प्रतीक है। अत: यह रतिसुखाभिलाषिणी अभिसारिका नायिका की मूर्ति जान पड़ती है। सुग्गे की उपस्थिति से इस विचार की पुष्टि होती है। चौथे, भित्ति-स्तंभ पर मकरवाहिनी गंगा की मूर्ति त्रिभंग मुद्रा में अभिव्यक्त की गयी है। पाँचवे, भित्ति-स्तंभ प्रदेश विष्णु के नृसिंह अवतार की मूर्ति से मण्डित है। छठे, भित्ति-स्तंभ पर पुरुष पारिचालक की प्रतिमा बनायी गयी है।
दाहिने बाजू के प्रथम भित्ति-स्तंभों पर बायें बाजू के भित्ति-स्तंभ के मूर्ति के समकक्षीय राजपुरुष की प्रतिमा है। दाहिने पार्श्व के दूसरे भित्ति-स्तंभ पर अष्टभुजी दुर्गा की प्रतिमा है। तीसरे भित्ति-स्तंभ पर आम्रवृक्ष की छाया में खड़ी नारी का त्रिभंग मुद्रा में आलेखन है। इस नारी मूर्ति के पार्श्व में अपेक्षाकृत लघुकाय वाला पुरुष विग्रह रुपायित है। चौथे भित्ति-स्तंभ पर कूर्मवाहिनी यमुना की मूर्ति है। पाँचवे पर भगवान विष्णु के नृवाराह रुप का मूर्ति रुप में चित्रण है। छठे भित्ति-स्तंभ पर पुरुष परिचायक की मूर्ति है।
अन्तराल : अन्तराल गर्भगृह और महामंडप के मध्य में बनाया जाने वाला वास्तु-रुप था। इस प्रवेश द्वार के प्रथम पाख (शाख) पर कल्पलता अभिकल्प का चार चित्रण है। द्वितीय शाख पर विविध भाव-भंगिमाओं, मुद्राओं तथा चेष्टाओं में मिथुन की आकर्षक मूर्तियाँ है। तृतीय शाख अर्धमानुषी रुप में नाग-नागिनों के युगनद्ध बांध से भरा हुआ है। जो सिरदल पर्यन्त भाग को व्यास किया हुआ है। ललाटबिम्ब पर गरुड़ासीन विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा है। ये अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पदम् धारण किये हुए हैं। गरुड़ की मूर्ति के अंकन में अप्रतिम शक्ति और शौर्य के भावों की मंजुल अभिव्यक्ति है। बाहर की ओर फैले हुए इनके दोनों हाथों को क्रमश: एक-एक नाग को पकड़े हुए अंकित किया गया है।
गर्भगृह :- इस गर्भगृह में मूल देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित है। यह प्रतिमा काले पत्थर की बनी विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति है, जिसके हाथों में क्रमश: शंख, गदा, चक्र और पदम है। भगवान राजीवलोचन के नाम से इसी मूर्ति की पूजा-अर्चना होती है।
राजेश्वर मंदिर :- राजीव लोचन मंदिर के पश्चिम में प्राकार से बाहर तथा द्वार प्रकोष्ठ से लगभग १८ फुट हटकर पूर्वाभिमुख अवस्था में यह मंदिर स्थित है। यह मंदिर यहाँ से प्राप्त् अन्य उदाहरणों की भांति २ फुट ८ इंच ऊंची जगती पर बना हुआ है।
(१) नन्दिमण्डप (२) महामंडप (३) अन्तराल एवं (४) गर्भगृह।
नन्दिमंडप की योजना दानेश्वर मंदिर की अपनी विशेषता है। राजिम से प्राप्त् किसी भी शैव मंदिर में हमें नंदि-मंडप नहीं मिलता।
कुलेश्वर महादेव मंदिर :- कुलेश्वर महादेव का मंदिर महानदी, सोन्डूर और पैरी नदी के संगम पर बना हुआ है। इस मंदिर का भी निर्माण एक जगंती पर किया गया है। सामान्यत: अन्य मंदिरों में जहां जगती का वास्तुसंस्थापन आयताकार रुप में किया गया है वहाँ इस जगती को अष्टभुजाकार रुप में प्रतिस्थापित किया गया है। इसके स्पष्ट प्रयोजन नदी की बाढ़ से होने वाले कटाव की प्रक्रिया से निर्मिति को सुरक्षित बनाये रखना है। यह जगती १७ फुट ऊँची है तथा निर्माण में अपेक्षाकृत बहुत छोटे-छोटे आकार के प्रस्तर-खण्डों का प्रयोग किया गया है।
रामचन्द्र का मंदिर :- राजीवलोचन तथा पंचेश्वर महादेव के मंदिरों की ही भांति यह मंदिर भी मूलत: ईटों का बना हुआ था। इतना ही नहीं, इससे संबंद्ध देवलिकाएं भी इंर्टो से बनायी गई थी। प्राप्त् प्रमाणों के आधार पर इस मंदिर को भी रतनपुर के कलचुरी नरेशों के सामन्त जगपालदेव द्वारा बनवाया गया ।
यहां के प्राय: सभी मंदिरों की भांति यह देवालय भी एक आयताकार जगती पर अधिष्ठित है। भू-विन्यास अथवा गर्भसूत्रिय व्यवस्था में राजिवलोचन मंदिर के ही समान इसके चार अंग हैं - (१) महामंडप (२) अन्तराल (३) गर्भगृह (४) प्रदक्षिणापथ। महामंडप अन्य उदाहरणों से कमरुपता रखते हुए सपाट छत वाला है तथा उत्तर और दक्षिण की ओर से पार्श्वभित्तियों द्वारा बन्द है, जबकि पूर्व की ओर से पूरा फुले हुए होने के कारण तथा गर्भगृह के प्रवेश द्वार का भी पूर्व की ओर मुख होने का कारण यह पूर्वाभिमुख वास्तु है। महामंडप की सपाट छत को आश्रय देने के लिए इसमें मध्यवर्ती स्तंभों की दो कतारें तथा एक-एक पंक्ति है। महामंडप के स्तंभों का शिल्प की दृष्टि से अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है। इन स्तंभों पर राजिम ही नहीं अपितु समस्त छत्तीसगढ़ क्षेत्र की प्राचीन मूर्तिकला के कुछ श्रेष्ठतम उदाहरण सुरक्षित है। प्रत्येक पंक्ति में स्तंभों की संख्यार चार-चार है। इसी तरह प्रत्येक पार्श्वभित्ति पर के भित्ति की संख्या भी चार-चार है। दोनो मध्यवर्ती कतारों के पहले स्तंभ प्राय: एक ही शैली के हैं तथा इनके बाह्य रुपमंडन में भी यथेष्ट समरुपता है। ये दोनों स्तंभ चौकोर बैठकी पर स्थापित किये गये हैं। स्तंभ का निचला दो तिहाई भाग समचतुरस्त्र है। इसके ऊपर क्रमश: अष्टास्त्र, वृत्त आदि आते हैं। वृत्त के ऊपर ऊर्ध्वाकार अलंकरण हीन बैठकी है। जिस पर पूर्णघट अभिप्राय गढ़ा गया है। इस पूर्णघट के ऊपर चत्वर परगहा है। इस परगहे के ऊपर बँधनी (कपोलपाली) है। दाहिने ओर की पंक्ति के दूसरे स्तंभ पर सालभंजिका भी अत्यंत ही मनोहारी मूर्ति है। इसी तरह बाँयी ओर के दूसरे स्तंभ पर आलिंगनबद्ध मिथुन मूर्ति है। दाहिने तरफ के तीसरे स्तंभ पर सालभंजिकाओं की दो प्रतिमाए उभार में रुपायित हैं। इनमें से एक को वीणा बजाते हुए बताया गया है। बाँयीं ओर के तीसरे स्तंभ पर भी सालभंजिकाओं की दो प्रतिमाएं उभार बनायी गई है। दोनों ही तरफ के तीसरे स्तंभों पर सालभंजिका की मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य दृश्य भी उत्कीर्ण है। उदाहरण के लिए बाँयी ओर वाले स्तंभ के दूसरे पार्श्व पर बन्दर परिवार का बड़ा मनोरंजक दृश्य है। इसी तरह दाहिने बाजू वाले स्तंभ पर भी माँ और शिशु तथा संगीत समाज का बड़ा ही भावात्मक अंकन है। मूर्तियों से युक्त स्तंभ यथेष्ट प्राचीन है। संभवत: इन्हें किसी भवन स्मारक से लाकर यहाँ बैठाया गया है। दोनों कतारों के चौथे स्तंभ अन्य उदाहरणों से भिन्न प्रकार के हैं। परन्तु इन पर भी विविध विषयों का मूर्तरुप में चारु चित्रण है।
भित्तिस्तंभों का सम्मुख भाग राजीवलोचन मंदिर के महामंडप के भित्ति स्तंभों की भाँति ही विविध विषयों की पूर्णमानुषाकार मूर्तियों से मंडित है । दायी ओर की पार्श्वभित्ति पर के पहले भित्ति स्तंभ पर मकर वाहिनी गंगा की प्रतिमा है। दूसरे पर एक राजपुरुष की मूर्ति है। तीसरे पर अष्टभुजी गणेश की मूर्ति है। चौथे पर अष्टभुजी नृवाराह की प्रतिमा है। इसी तरह बांयी ओर की पार्श्व भित्ति पर के पहले भित्ति स्तंभ पर पुन: मकर वाहिनी गंगा की मूर्ति मिलती है। दूसरे पर किसी राजपुरुष की खड़ी हुई मूर्ति है। तीसरे पर पुन: मकर वाहिनी गंगा की मूर्ति है। तथा चौथे भित्ति स्तंभ पर अष्टभुजी नृवाराह की मूर्ति है।
महामंडप के पश्चिमी छोर पर गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनों ओर के प्रदक्षिणापथ का प्रवेश द्वार बना हुआ है। राजीवलोचन मंदिर में तथा यहां के अन्य सान्धार प्रकार के देवालयों में प्रदक्षिणापथ को महामंडप से जोड़ने के लिए बनाये गये प्रवेश द्वार, द्वार शाखाआें से युक्त है, तथा इनके अधो भाग पर गंगा-यमुना नदी-देवियों की मूर्तियां है। राजिम के किसी भी मंदिर के प्रवेश द्वार में नदी-देवियों का प्रवेश द्वार के पाखों पर अंकन नहीं मिलता। इस दृष्टि से ये दोनों प्रवेश द्वार विशेष महत्व के हो जाते हैं। इन्हें देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन दोनों प्रवेशद्वारों का संबंध किसी अन्य छोटे मंदिरों से रहा है।
पंचेश्वर महादेव मंदिर :- यह रामचन्द्र मंदिर की भाँति इंर्टो का बना हुआ है। यह मंदिर नदी के तट पर बनाया गया है तथा पश्चिमाभिमुख है। वर्तमान में इस मंदिर का केवल विमान ही शेष है और वह भी अत्यधिक जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है।
राजिम तेलिन मंदिर :- इस मंदिर का वास्तुशिल्प पंचेश्वर तथा भूतेश्वर मंदिर के वास्तुशिल्प से समरुपता रखता है। यह मंदिर राजेश्वर तथा दानेश्वर मंदिर के पीछे स्थित है। वर्तमान में इस मंदिर का विमान की प्राचीन निर्मित्ति का प्रतिनिधि है।
भूतेश्वर महादेव मंदिर :- इस मंदिर नदी के तट पर पंचेश्वर मंदिर के बाजू में स्थित है। यह भी ऊँची जगती पर स्थापित किया गया वास्तु रुप है। यह मंदिर भू-विन्यास में यहाँ के अन्य पूर्ण मंदिरों की तरह महामंडप, अन्तराल और गर्भगृह से युक्त है। उत्सेध अथवा ब्रम्हासूत्रीय व्यवस्था में इस मंदिर का विमान अधिष्ठान, जंघाशिखर और मस्तक से युक्त है। विमान नागर प्रकार का है तथा कलचुरीकालीन मंदिर वास्तु की परम्परा में बनाया गया है।
जगन्नाथ मंदिर :- राजीवलोचन मंदिर के प्राकार के उत्तरी-पश्चिमी कोने पर बने नृसिंह मंदिर के उत्तरी बाजू में प्राकार से बाहर यह मंदिर स्थित है । यह मंदिर भी एक जगती पर बनाया गया है। इस पूर्वाभिमुख देवातन के अंग है। महामंडप, अन्तराल, गर्भगृह और प्रदक्षिणापथ भू-विन्यास योजना में ये चार प्रमुख अंग है।
सोमेश्वर महादेव मंदिर :- यह मंदिर राजिम की वर्तमान बस्ती के उत्तर में थोड़ी दूरी पर नदी के तट से थोड़ा हट कर स्थित है। स्थापत्य की दृष्टि से यह अपेक्षाकृत अल्प महत्वपूर्ण है, तथा वर्तमान रुप में बहुत बाद की कृति प्रतीत होती है। परंतु वर्तमान मंदिर के महामंडप से लगा हुआ एक प्राचीन मंदिर का अवशेष है। इसके अतिरिक्त इस मंदिर के महामंडप के स्तंभ प्राचीन है तथा अपना शिल्पशैली में राजीवलोचन मंदिर के महामंडप के स्तंभों से समरुपता रखते हैं।
कैसे पहुंचे :-
हवाई मार्ग : रायपुर (४५ कि.मी.) निकटतम हवाई अड्डा है तथा दिल्ली, मुंबई, भुवनेश्वर, नागपुर तथा जबलपुर से जुड़ा हुआ है।
रेलमार्ग : रायपुर निकटतम रेल्वे स्टेशन है, तथा मुंबई-हावड़ा मार्ग पर स्थित है।
सड़क मार्ग : राजिम नियमित बस तथा टैक्सी सेवा से रायपुर तथा महासमुंद से जुड़ा हुआ है।
कहां रुकें :- विश्राम हेतु यहां पर पी.डब्लु.डी. का विश्राम गृह है, तथा अधिक आरामदायक सुविधा के लिये रायपुर में विभिन्न प्रकार के होटल उपलब्ध है।
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देश के नक्शे पर उभरता एक नया कुंभ स्थल - राजिम
- डॉ. परदेशीराम वर्मा
छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहलाता है रजिम। हर व्यक्ति की तरह हर शहर और तीर्थ स्थल की भिन्न विशेषता होती है। छत्तीसगढ़ देश भर में अपनी सरलता और शिष्टता के लिए प्रसिद्ध है। उसी तरह यहां के महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल भी अपनी सहजता के कारण सबका ध्यान आकृष्ट करते हैं। राजिम छत्तीसगढ़ का प्रमुख तीर्थ है। इस तीर्थ स्थल का महत्व कई कारणों से है। भगवान शंकर और विष्णु पर समान श्रद्धा का केन्द्र है राजिम। कभी विश्व और विष्णु के भक्तों में दूरियां रही होंगी जिसके कारण श्रद्धालुओं में भी दूरियां रही। लेकिन तुलसीदास जी जैसे भक्त कवियों ने संस्कार दिया। उन्होंने लिखा कि -
शिव द्रोही मम दास कहावा,
सो नर सपनेहु मोहि न पावा।
अर्थात शिव से विरोध करने वाला मेरा भक्त भी मुझे सपने में भी नहीं पा सकता। समन्वय की धरती छत्तीसगढ़ के तीर्थ राजिम में पुष्पित हुआ यहीं मेल का दर्शन। यह अनोखी उपलब्धि है। यहां विष्णु अवतार भगवान श्रीराम राजीवलोचन के रुप में विराजित है तो भगवान शंकर पास में बह रही महानदी के बीच स्थित है। भक्तों का कल्याण करने वाले दोनों देव यहां सबका मिलकर रहने की प्रेरणा देते हैं। राजिम के पास सम्पारण्य में वल्लभाचार्य जी जन्मे। वे कृष्ण भक्ति शाखा के शीर्ष गुरु और भक्त कवि सूरदास तथा अष्टछाप के दिग्गज कवियों के गुरु हैं। कृष्ण भक्तों और राम भक्तों में भी कभी दूरियां थीं। लेकिन यह क्षेत्र सारी दूरियों को दूर करने वाला सिद्ध हुआ। चम्पारण्य और राजिम का अंतर्सम्बंध इसका प्रमाण है कि छत्तीसगढ़ मिलने में, शांति, एकता, क्षमा और सत्य आचरण में विश्वास करता है।
महानदी, पैरी और सोंडूर नदी के संगम में विराजित है भगवान शंकर। इस वर्ष एक अदभुत प्रयोग हुआ हैजिसे इसके प्रभाव को प्रत्यक्ष देखकर ही समझा जा सकता है। कभी मेला मैदान में राजिम मेला लगता था। इस वर्ष पूरा मेला उठकर नदी में आ गया है। नदियों ने जीवन जल देकर सम्यताओं का अभिसिंचन किया। शुरु में नदी किनारे ही गांव शहर आबाद हुए। देश में संभवत: यह पहला प्रयोग है जहां सूखी नदी की रेत में मेला आबाद है। नदी लहरा कर बहती है तब जीवन दायिनी जलधारासे सृष्टि को सुज्जित करती है। लेकिन सूख आई महानदी भी संस्कृति का अभिसिंचन कर रही है। हर हाल में महानदी से हम शक्ति और भक्ति अर्जित करते हैं। सूखे पेड़ के संबंध में ये पंक्तियां हैं जो सूखी महानदी में चल रहे सांस्कृतिक यज्ञ को देखकर याद हो आती है -
हम साया पेड़ जमाने के काम आये,
जब सूख गये तो जलाने के काम आये।
राजिम और उसके आसपास के महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों की स्थिति के आधार पर इसे कमल क्षेत्र भी कहा जाता है। नौ मील के भीतर कमल की पंखुड़ियों के समान तीर्थ स्थान है। बम्हनी में बम्हनेश्वर, चम्पारण्य में चम्पेश्वर, कोपरा में कोपेश्वर, पटेवा में पटेश्वर और फिंगेश्वर, ये पांचों कुलेश्वर महादेव मंदिर से पांच कोस की दूरी पर है। पांचों शिवलिंग की परिक्रमा के बाद कुलेश्वर महादेव में जल चढ़ाकर भक्तगण अपनी तीर्थ यात्रा पूर्ण मानते हैं।
कुंभ स्थल के रुप में देश के भिन्न भिन्न स्थानों को पूर्व में ही महिमा प्राप्त् है। राजिम में कुंभ की परिकल्पना अब की गई है। जो धीरे-धीरे साकार हो रही है। छत्तीसगढ़ को महत्ता दिलाने के हर प्रयास की हम सब खुले मन से प्रशंसा करते हैं। यह भी वंदनीय प्रयास है। राजिम के संत पवन दीवान की उम्र बढ़ाने वाले प्रयास हैं ये। संत कवि पवन दीवान की हर हर सांस में छत्तीसगढ़ है। ५ फरवरी को राजिम में उनके साथ मैं समग्र मेला स्थल घूम आया। दीवान जी इन दिनों कहीं नहीं जाते। बच्चों की तरह पुलकित होकर वे मेले की विशेषता बताते रहे। मेरे साथ इस वर्ष के चंदूलाल चंद्राकर सम्मान प्राप्त् रावघाट के योद्धा विनोद चावड़ा भी थे। घूमते हुए एक स्थल पर हम ठगे से खड़े रह गये। हम चकित रह गये एक मूर्ति को देखकर। ठीक राजीवलोचन मंदिर के सामने नदी के किनारे यह सुन्दर मूर्ति इस वर्ष लगी है। यह माता कौशल्या की मूर्ति है। छत्तीसगढ़ की बेटी भगवान श्रीराम की माता कौशल्या की मूर्ति। माता की गोद में बैठे हैं भगवान श्रीराम, बालक रुप में। इस मूर्ति की स्थापना के लिए संत कवि पवन दीवान ने विगत वर्ष से प्रयास किया। मूर्तिकार नेलसन की ऐसी ही मूर्ति का अवलोकन माननीय मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कूर्मि भवन सेक्टर-७ में किया। लेकिन राजिम में लगी मूर्ति मिट्टी की है। इसे यह संयोग ही है कि इसे कुंभ अर्थात घड़ा बनाने वाले एक कलावंत कुंभकार श्री शिवकुमार ने बनाया। शिवकुमार धमतरी के कुम्हार पारा के निवासी हैं। राजिम में मिट्टी की मूर्ति बनाने वे धमतरी से आये। राजिम के पास स्थित अपने समधी गांव कोलियारी में रहकर उन्होंने मूर्ति का निर्माण किया। दीवान जी कोलियारी भी गये। अट्टहास करते हुए उन्होंने कहा कि माता कौशल्या छत्तीसगढ़ की बेटी है। सीता जी मिथिला की बेटी है और छत्तीसगढ़ के भांजे भगवान श्रीराम आयोध्या के राजा है। इस तरह अयोध्या, मिथिला और छत्तीसगढ़ का सूत्र जुड़ता है। सूत्रों को जोड़ना बड़ी बात है। यह कौशल छत्तीसगढ़ के पास है और यह कौशल माता कौशल्या से मिला है। कौशल्या छत्तीसगढ़ अर्थात कौशल की बेटी है। इस तरह कौशल का हमारा संस्कार है। छत्तीसगढ़ ही कौशल कहलाता था। राजिम से चंपारन की हमारी यात्रा भी उसी दिन हुई। दीवान जी साथ गए। वे राजिम और चम्पारण्य के आपसी संबंध की महत्ता भी बतलाते रहे। चम्पारण्य में भी एक विराट मंच महोत्सव समिति के द्वारा बनाया गया है। मंच पर छत्तीसगढ़ की छत्तीस लोक विधाओं के मंचन की घोषणा का बैनर लगाया गया है। यह प्रशंसनीय पहल है।
इस तरह राजिम से छत्तीसगढ़ का एक तेजस्वी व्यक्तित्व उभरता है। राजिम कवियों, साहित्यकारों की नगरी है। मेले में वैचारिक संगोष्ठी का आयोजन इसे नया आयाम देता है। लोमश ऋषि के आश्रम में भागवत प्रवचन भी रखा गया है। राजिम भागवान प्रवचन के सिद्ध तपस्वियों के कारण भी देश भर में चर्चित है। प्रवचन की गुग्धकारी परंपरा को पवन दीवान ने नया आयाम दिया। संत पवन दीवान की सारी शक्ति प्रवचन से पैदा हुई और विस्तारित भी हो रही है तो प्रवचन के कारण ही। पवन दीवान अपने प्रवचन में अपनी प्रसिद्ध कविता को सुनाकर अपने जीवन का परम उद्देश्य भी उद्घाटित कर देते हैं-
ओ थके पथिक, विश्राम करो मैं बोधिवृक्ष की छायाहूं,
इस महानगर में जीवन का संदेश सुनाने आया हूं।
जीवन का संदेश सुनने-सुनाने लोग राजिम जैसे तीर्थों में पहुंचते हैं। राजिम में भीड़ उमड़ी पड़ रही है। इस वर्ष विशेष सज्जा देखते ही बन रही है। पर्यटन और संस्कृति विभाग का श्रम साफ झलकता है। रात को जब रोशनी होती है तो भव्य महानदी की गोद में सज्जित मेले का दिव्य स्वरुप अनिर्वचनीय हो उठता है। बाल ब्रम्हचारी बालकदास जी प्रकाण्ड पंडित हैं। वे लगातार राजिम की महिला के विस्तार के लिए निर्देश और सुझाव देते रहे हैं।
छत्तीसगढ़ का यश ऐसे आयोजनों से बढ़ता है। राजिम क्षेत्र में धर्म वैभव का विस्तार लगातार हो रहा है। भिन्न-भिन्न रुचि और समझ के लोग मेले में आते हैं। साधन भी अलग अलग है लेकिन लोकमंचीय प्रस्तुतियों का आनंद सभी लेते हैं। शहरी दर्शक भी अब छत्तीसगढ़ी लोक मंचीय प्रस्तुतियों से बंधा खिंचा राजिम पहुंचता है। भद्दे प्रयोग और अरुचिकर प्रस्तुतियों से सुकून मिलता है। आशा है, आगामी वर्षो में मिट्टी से बनी माता कौशल्या की मूर्ति के स्थान पर भव्य धातु निर्मित मूर्ति की स्थापना भी राजिम में होगी।
इतिहास, संस्कार, धार्मिक आख्यान, कल्पना और शोध आधारित तथ्यों की भिन्न-भिन्न दिशाओं के ज्ञानमार्गी यहां सम्मिलित होंगेऔर धीरे धीरे राजिम ख्याति के चरम शिखर को स्पर्श करेगा। नये छत्तीसगढ़ की पौराणिकता से परिचित होगा। नये प्रयासों से पुरानी सच्चाईयों के पट खुलेंगे और देश के नक्शे पर पूरी भव्यता के साथ उभर रहे इस नये कुंभ स्थल की महिमा से सब परिचित होंगे।
- डॉ. परदेशीराम वर्मा
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