छत्तीसगढ़ के गांधी श्री पवन दीवान को प्रिय उपन्यास आवा की समीक्षा
आवा मेरी दृष्टि में
भाई परदेशीराम राम वर्मा के छत्तीसगढ़ी उपन्यास आवा को पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में बार बार यह विचार उठता था। लेकिन, अफसोस कि मुझे समीक्षा नहीं आती। चना है, तो दांत नहीं।
आवा अनेक दृष्टियों से सशक्त उपन्यास है। पं. रामनरेश त्रिपाठी के पथिक को जिस प्रकार गांधी दर्शन के मौलिक काव्य होने का गौरव मिला, न्यूनाधिक रुप से उसी गौरव का हक छत्तीसगढ़ी केइस उपन्यास का भी बनता है। अगर अतिशयोक्ति न मानी जाए, तो विनम्रतापूर्वक कहना चाहूंगा कि जो अतिरिक्त गुण इस उपन्यास में हैं, वे पथिक में भी नही है।
उपन्यास की पृष्ठ भूमि ग्राम लीमतुलसी की है। पात्रों के नाम तथा उनके चरित्र-चित्रण को देखकर मुझे स्पष्ट हो गया कि गांव का असली नाम लिमतरा है जो मेरा तथा लेखक, दोनोंका गांव है। मेरे पिताश्री की पुण्य स्मृति को समर्पित इस कृति में मैं तथा मेरी माँ भी पात्र हैं। पिताश्री तो उपन्यास के नायक की ही तरह है। उपन्यास के लिए आवश्यक रंग रोगन की दृष्टि से कथानक में कुछ अतिशयोक्तियां तथा मनगढ़ंत बातें भी हैं जो लेखक के उद्देश्य की पूर्ति के लिए है।
महात्मा गांधी का स्वतंत्रता आंदोलन, सन्त घासीदास की सत्यनिष्ठा, छत्तीसगढ़ का इतिहास व गौरव, लोकभाषा का माधुर्य और रामकथा में ग्राम के लोकमानस का अनुराग इस कृति के पंचप्राण है। छत्तीसगढ़ी के मुहावरों व लोकोक्तियों की प्रचुरता तथा पग-पग पर रामचरित मानस के छंदों का सटीक प्रयोग पाठकों को आकृष्ट तो करता ही है। किन्तु छत्तीसगढ़ के त्यौहार, व्यंजन, कृषि उपकरण, वाद्य आदि का भी विस्तृत उल्लेख यह स्पष्ट करता है कि लोक जीवन में रचा-बसा और आकंट डूबा लेखक ही इसे रचने में समर्थ हो सकता है।
इस उपन्यास का मूल उद्देश्य गांधी दर्शन का प्रतिपादन है। गांधी आज भी प्रासंगिक है, यह उपन्यास पढ़ने के बाद लगता है। परदेशियों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर गांधी जी ने सम्हाली। उन परदेशियों ने हमारे लोक को पुष्ट किया है। लिमतरा गांव को तीर्थधाम बनाने की उसकी कामना में मेरी भी सह-अनुशक्ति है। वैसे भी, लिमतरा की भू-माता का स्तन-पान पहले मैंने किया है।
ाव्यात्मक शुरुवात वाली इस किताब में पात्रों की सहज अभिव्यक्ति तथा रोचक व मनोरंजक प्रसंगों के बाहुल्य से समरसता और मिठास की उत्तरोत्तर वृद्धि उसी प्रकार होती है जैसे गन्ने की डाँग में। यदि अच्छी अभिव्यक्तियों का उदाहरण देना प्रारंभ करुं, तो लगभग १० पृष्ठ लिखे बिना मुझे ही सन्तुष्टि नहीं होगी। प्रूफ और मुद्रण की गल्तियां बहुत है और यही इस किताब की एकमात्र कमजोरी है जिसे दूसरे संस्करण में दूर करना आवश्यक है किंतु इसके बावजूद हर छत्तीसगढ़ी भाषा-भाषी को यह उपन्यास अवश्य पढ़ना चाहिये, इतना ही हककर अपनी भावनाओं को बरबस समेटता हूं।
- दानेश्वर शर्मा
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छत्तीसगढ़ महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रसिद्ध साहित्यकार श्री सरयूकांत जी झा आशुतोष के नाम से समीक्षा लिखते हैं। वे ७५ वर्षीय साहित्य साधकों के गुरु हैं तो तीसरी पीढ़ी के युवा रचनाकारों के भी गुरु हैं।
डॉ. परदेशीराम वर्मा उनके प्रिय शिष्य रहे। डॉ. परदेशीराम वर्मा लिखित उपन्यास प्रस्थान को महंत अस्मिता सम्मान मिला। आशुतोष श्री सरयूकांत जी झा ने आशीर्वाद स्वरुप महत्वपूर्ण समीक्षा लिखा। उपन्यास प्रस्थान में चूंकि संत कवित पवन दीवान का चरित्र, अट्टहास, दर्शन और विचार स्पष्ट झलकता है। इसलिए समीक्षा यहां ससम्मान प्रस्तुत है।
छत्तीसगढ़ी अस्मिता
श्री परदेशीराम वर्मा एवं उनका उपन्यास प्रस्थान
प्रस्थान को हम छत्तीसगढ़ की आत्मा के परिचायक के रुप में पाते हैं। जैसे शरीर में अवयव तो प्रत्यक्ष रहते हैं पर आत्मा के अस्तित्व को ढूंढने के लिए ज्ञान, अनुभव और संवेदनशीलता आवश्यक है, उसी प्रकार से इस औपन्यासिक कृति में छत्तीसगढ़ की जीवन्तता की खोज है। उसे जानने समझने के लिए पाठक को भी उसी धरातल में पहुंचना होगा। ऐसी दशा में प्रस्थान केवल सामान्य आंचलिक उपन्यास न रहकर इतिहास, समाजविज्ञान और २ करोड़ छत्तीसगढ़वासियों का आन्तरिक परिचय बन जाता है। इसके सभी प्रमुख पात्र हमारे अत्यंत सुपरिचित से लगते हैं। स्वयं वर्मा जी भी इसमें कहां छिप पाये हैं। यह तो हमारी आपकी सबकी आत्मकथा है। तब हम सब इससे अलग कैसे रह पायेंगे। यह तो पूरे छत्तीसगढ़ का भूगोल है । इसमें ऊचाइयां हैं, गहराइयां हैं। धरातलीय मैदान भी है। उद्दाम भावनाओं की बाढ़ भी है तो शान्त सरोवरों का गंगाजल भी कम नहीं।
इस एक कथा सूत्र में अनेक रंगों के धागों को बट दिया गया है। इसमें कमलनारायणी अट्टहास है तो मुकरदमिन और गंगा का हाहाकारी रुदन भी। उदार डॉ. मनराखनलाल की बराबरी में ही दाऊ बिजलाल का स्वार्थ और लुच्चापन टकराता दिखता है। गौटनिन की क्रूरता के परिपेक्ष्य में चन्दा-चन्दैनी की कलाकारिता है। सभी को एकही कहानी में गूंथने में वर्मा जी को भगीरथ प्रयास करना पड़ा है। क्योंकि सभी पात्र अपनी अलग-अलग सजधज में नई कहानियों की रचना करते चल रहे हैं और एक कुशल सपेरे के समान लेखक सभी को एक ही झांपी में भरने की कोशिश में एड़ी चोटी एक कर रहे हैं। परिणामत: सबकी कहानी अनकही रह जाती है। हमें तो उन्होंने एक ही महामंच दिया है - छत्तीसगढ़। उसी में सभी प्राचीन, अर्वाचीन और भविष्य आकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। कहीं पं. रविशंकर शुक्ल हैं तो डॉ. खूबचंद बघेल भी है। चन्दूलाल चन्द्राकर है तो सुधीर मुकर्जी भी पीछे नहीं हैं। श्री दानेश्वर जी के संग पवन दीवान है तो वासुदेव भी है। नए-पुरानों की छबि साफ साफ दिखलाई पड़ रही है। उपन्यास के पर्दे के पीछे से सभी अपनी अपनी चमक के साथ झांक रहे हैं। भले ही उन्होंने नए नाम और नाटकों के अनुसार नया मेकम किया हो पर पारखी आंखें भांप ही लेती हैं। लेखक अन्त-अन्त में सबको वास्तविक नाम से भी पुकारता है और वहीं पर एक ही व्यक्तित्व के दो रुप, दो नाम के साथ असली नकली का प्रश्न आ खड़ा होता है। तारीफ यह कि कथासूत्र का पात्र असली लगता है। भले ही उसका नामरुप कुछ दूसरा ही हो।
पात्रों की अलग अलग कथाओं के समान कक्षाक्षेत्र भी कई हैं। भले ही मुख्य कथानक का मंचन गोरसी, चंदाडीह और चातरगांव के तीन कोसों में ही सिमटा हुआ हो पर भिलाई, दुर्ग, रायपुर, बिलासपुर, भोपाल, दिल्ली और अमरीका तक इसका विस्ता हुआ है। खारुन सेलेकर मिसीसीपी तक इसका प्रवाह बहता हुआ दिखता है। उसकी राजनीति में अर्थनीति और कूटनीति का सम्मिश्रण हुआ है। धार्मिक, रीतिरिवाजों में साम्यता के सिद्धांतों की चर्चा भी समाई हुई है। गांव के भोलेभाले किसानों के साथ महाराष्ट्र के गफ्फार मियां की जुगलबन्दी अलग समा बांधती है। भिलाई के अन्तर्राष्ट्रीय जनाकुल महातीर्थ को सम्मिलित कर कथाकार ने उपन्यास को ऐसी ऊंचाई दे दी है, जिससे अचरज होता है। भिलाई का कारखाना छत्तीसगढ़ के अनगढ़ लोहे को इस्पात में ढालता है। इस सत्य के साथ यह भी समझ में आने लगता है कि सीधे सादे छत्तीसगढ़ियों को भी अब इस्पाती दृढ़ता मिलने लग गई है। आज कोई ब्रिजलाल दाऊ या बाहरी ठेकेदार इसकी अस्मिता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता। यदि कभी किसी ने अपनी गोरसी में फूल खिलाने की असम्भव चेष्टा की तो उसे खारुन के जल में ही ठंडा करना होगा। छत्तीसगढ़ में एक नई संस्कृति पनप रही है। वह अब अपने को चुपचाप लुटते हुए नहीं देख सकती। वह ताल ठोककर प्रतिरोध के लिए तैयार है।
परदेशीराम वर्मा मंजे हुए साहित्यकार हैं। उनकी सैकड़ों कहानियां, नाटक, कवितायें आदि अपनी अलग पहचान बनाये हुए हैं। छत्तीसगढ़ी उनकी मातृभाषा के साथ ही उनकी गौरवगाथा का सशक्त माध्यम है। फिर प्रस्थान उनकी इस विशेषता से कैसे वंचित रह जाता। पूरा उपन्यास छत्तीसगढ़ी गीतों, कहावतों और दन्तकथाओं से भरा हुआ है। भरथरी, पंडवानी, रामायण के साथ ददरिया, गौरागीत, राऊत नाचा-गीत, गम्मत, आदि सभी की बानगी इसमें मिलेगी। हिन्दी कविताओं और यहां के चर्चित कवियों का समागम प्रस्थान को नया आयाम देते हैं। ऋतु वर्मा, पद्मश्री, तीजन बाई, पंथीकार देवदास, दाऊ और मानिकपुरी अब किसी के परिचय के मोहताज नहीं। भारत की सीमाओं को पारकर छत्तीसगढ़ की अस्मिता को विस्तार देने में उनका सानी नहीं है। इस उपन्यास में सभी विद्यमान हैं। सभी बारी बारी से मंच पर आते हैं और अपनी कहानी कह चलते हैं। इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता इन कलाकारों की पृष्ठभूमि को उजागर करने में हैं। उनके निर्माण के पीछे जो संघर्ष और गहरे कारण है वर्मा जी ने उन पर खूब बारीक नज़र डाली है। इस शैली में उन्हें महारत हासिल है। इसीलिए एक सिद्धहस्त कलाकार के रुप में उन्होंने घटनाओं का चित्रण किया है और उनमें से उन्होंने अपने निष्कर्ष निकाले हैं। उन घटनाओं की ऐतिहासिकता और उनकी फलश्रुति की सच्चाई के ऊहापोह में न पड़कर कथाभाग में उनकी सहभागिता ही यहां पर दृष्टव्य है।
प्रस्थान छत्तीसगढ़ में एक नए युग के आगमन की कथा है। यहां की कलाओं की नई दिशाओं में गतिशीलता का अंकन उसका मुख्य कथ्य है। सामंतवादियों, शोषकों और अतिवादियों के विरुद्ध जनता के नए प्रस्थान का अभियान है। इसी में छत्तीसगढ़ी मय नई हिन्दी का अभिनव स्वरुप भी है। छत्तीसगढ़ी अस्मिता जाग रही है। उसकी अंगड़ाइयां दृष्टिगोचर होने लग गई है। अभी तक वह भारतीय संस्कृति जीओ जीने दो के मूलमंत्र और संस्कारों में आबद्ध रही हैं। अपने शोषण और गरीबी को वह अपना भाग्य मान रही थी। पर इस नए युग में नए भारत के साथ छत्तीसगढ़ के हवा पानी में भी बदलाव आने लग गया है। उसके स्वर में दृढ़ता और सांस सांस में हुंकार सुनाई पड़ने लग गई है। नई औद्यागिक क्रांति ने छत्तीसगढ़ की सोच के नए प्रतिमान गढ़ने शुरु कर दिये हैं। वह भी अब इस पावन भूमि को निशिचरहीन करने के लिए अपनी भुजाओं को उठाकर प्रतिज्ञा करने लग गया है। वह अब बुधंआ मजदूरों की विवशताओं को झेलने के लिए तैयार नहीं। उसे अब अपने यहां के उद्योगों में भागीदारी चाहिए। उसका नेतृत्व नए छत्तीसगढ़ को गढ़ने के लिए गांव गांव में अपना झण्डा फहराते चल रहा है। यहां पर प्रस्थान का कथानक केवल तीन गांव की कहानी न रहकर पूरे सात हजार गांवों का चित्रांकन करने लगा है। इसका घटनाचक्र प्रतीकात्मक बनकर पूरे छत्तीसगढ़ को ही अपने केन्वास में उतारने लग गया है।
श्री वर्मा मंजे हुए लेखक हैं, छत्तीसगढ़ के सशक्त हस्ताक्षर हैं उनकी छत्तीसगढ़ी में लोच है, प्रेषणीयता है, थोड़े में बहुत कह जाने की अदभुत क्षमता है। उनकी हिन्दी में अर्थ गाम्मीर्य के साथ सीधी सादी सपाट बयानी भी है। भाषा संबंधी दोनों माध्यमों के एक साथ एक ही पुस्तक में प्रयोग होने के कारण भले ही तारतम्यता में उतनी बाधा न पड़ी हो पर प्रवाह में भटकाव तो आया ही है। इस प्रकार की आंचलिक शैली को अभी और मंजने की आवश्यकता है। कथानक में पीढ़ियों के वर्णन के साथ चरित्रों की भरमार होती चली गई है। कई पात्र तो बिलकुल एक सी प्रतीति लेकर अपनी पहिचान ही खो चुके हैं। सभी परिचितों और स्थापितों को इस एक ही कृति में न बांधकर यदि उन्हें अलग से विस्तार दिया जाता तो कदाचित अधिक बात बनती। पर यह तो एक प्रस्थान है। अभी सारा रास्ता ही सामने पड़ा है। वर्मा जी ने मंजिल की पहिचान करली है, उनके पथ संचालन की दृढ़ता से भी हम सुपरिचित ही हैं। वे यहां रुकने वाले नहीं हैं। उन्होंने नया प्रयोग किया है। अभी तो उन्होंने छत्तीसगढ़ी अस्मिता की सरिता और संगम को ही शब्द दिये हैं। अभी तो क्षीरसागर दूर है। वहां तक पहुंचने में ही किसी महानद की सार्थकता है। उनकी भगीरथी साधना पर हमें आस्था है, विश्वास है।
उनका यह प्रस्थान छत्तीसगढ़ी की निष्ठा का ध्रुव तारा बनकर सबका दिशा-निर्देश करता रहे। यही हमारी हार्दिक शुभाशंसा है। इस अभिनव प्रयास के लिए हमारी अनन्त बधाइयां।
- आशुतोष
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अपनी चिन्हारी तलाशती औरत खेत नहीं संग्रह की कहानियां
निम्न मध्य वर्ग की जिन्दगी की कड़वी सच्चाई इन कहानियों में उभरकर सामने आई है। उन गांवों से मुलाकात होती है, जिनका धीरे-धीरे शहरीकरण हो रहा है। छत्तीसगढ़ी के भाषिक मुहावरों, कहानियों की खिड़की से झांकते नज़र आते हैं। ये कहानियां सामंती प्रवृत्ति के वैभवशाली लोगों के बीच फंसी आम आदमी की पीड़ा को बड़ी ईमानदारी के साथ व्यक्त करती दिखाई देती है। पात्रों की पीड़ा कथाकार की पीड़ा है। कल्पना के सहारे तो रेत में भी महल खड़े किये जा सकते हैं, लेकिन कथाओं में कल्पना के सहारे यथार्थ का रंग भरना बार-बार संभव नहीं होता। गांव में रचबस कर, तरिया-नदिया में डुबकी लगाकर, भी कहानियां लिखी जा सकती है। औरत खेत नहीं संग्रह को पढ़कर उन तमाम घटनाओं से साक्षात्कार होता है, जिनसे परदेशीराम वर्मा की मुठभेड़ कहीं न कहीं हुई है। कभी कभी तो कथाकार के लिये भी सत्य को उद्घाटित करना मुश्किल होता है, लेकिन संग्रह की कथाओं के जीवंत पात्र अपना बयान खुद कराते चलते हैं। सत्य को सत्य की तरह कहने का साहस भी जुटाते हैं।
ग्राम स्वराज और पंचायती राज के पोल के भीतर की कथायें निकलती है। संग्रह की कहानी है आशंका। पंचायत में न्याय मिलने के बाद भी सामंती प्रवृत्ति के चलते भूरी जैसी सुघड़ सुन्दर महिला की हत्या द्वारा आशंका की पुष्टि करती है कि नारी उत्पीड़न की समस्या अपनी जगह पर कुंडली मार कर बैठी है। चूड़ी छत्तीसगढ़ की स्वाभिमानी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है। फुग्गा बाई साहस के साथ बरातू की विरक्ति को जीवन भर झेलती है। बरातू भरी पंचायत में इन्कार करता है कि फुग्गा बाई के पेट में पलता बच्चा उसका नहीं है। लेकिन वह चूड़ी धर्म का निर्वाह करती है। हाथों की चूड़ियां उसी दिन उतारती है, जिस दिन बरातू की मृत्यु होती है। वह भी बरातू के गांव के तालाब में, जहां सारा गांव इकट्ठा था। फुग्गा बाई एक कलाकार के स्वाभिमान की रक्षा करते दिखलाई पड़ती है।
पैंतरा कहानी का चैतराम अकेला नहीं है। हर गांव में एक चैतराम मौजूद है। षड़यंत्र का शिकार, जो अपनी बहन की लाश के साथ हर जगह अकेला है। गांव का गौंटिया कब पैंतरा बदलता है, कोई भी चैतराम समझ नहीं पाया। हमारी व्यवस्था का कानून भी समझ नहीं पाया। अपने कथ्य में बिल्कुल भिन्न - औरती खेत नहीं जबर्दस्त चोट करती है, पुरुषार्थ पर। रमेसर मंडल का छल और जगेसरी के स्वाभिमान का द्वन्द देखते ही बनता है। जगेसरी अंतत: छल का जवाब देती है और यह भी स्पष्ट करती है कि अब औरत खेत नहीं रही। जिसमें बीज डालकर अपने हिसाब से लूने की तैयारी कर ली जाती है।
ये कहानियां व्यापक दृष्टि रखती है। ग्रामीण जन की आदिम व्यथा को अभिव्यक्त कर सकने में पूरी तरह समर्थ। छत्तीसगढ़ी मुहावरों का प्रयोग कहानी को अपनी मिट्टी की सोंधी महक से जोड़े रखती है। ग्रामीण परिवेश की जो गहरी समझ कथाकार के पास है, वह उसकी निजी पूंजी है। जिसके बल पर यह चौथा संग्रह सामने आया है। परदेशीराम वर्मा अपनी कहानियों में उस आदमी की अस्मिता को तलाशता नज़र आते हैं, जो लगभग गुम हो चुकी है। कहानियां शोषण के चक्रव्यूह के खिलाफ मानवीय सरोकारों की पड़ताल करती नज़र आती है।
वैचारिक आस्था को हिलाकार रख देने वाली कहानी है परसराम गुरुजी का साहित्यिक अवदान। कथा के अंत में गुरुजी का लहुलूहान होकर दम तोड़ना, एक पूरे वर्ग चरित्र को उजागर करता है। जिसे हम देशभक्ति और जनसेवा के एक बड़े कत्लगाह के रुप में भी जानते हैं। फांसी कहानी में वह आतंक छत्तू चौकीदार के माध्यम से सामने आया है। वह आज भी चोर पकड़ने की कोशिश में है। उसे थाने से आदेश हुआ है, उसने चोर देखा है तो पकड़कर लाये, वरना फांसी पर चढ़ने तैयार रहे। चोर कहलाने की बजाय छत्तू फांसी पर झूलकर मर जाना चाहता है। फिर सोचता है, मैं कैसे फांसी लगाऊंगा फांसी तो सिर्फ सरकार के आदेश पर हो सकती है। यह त्रासदी छत्तू की है या छत्तीसगढ़ की। इन कहानियों में कल्पना की कोई ऊंची उड़ान दिखलाई नहीं देती। यथार्थ की जमीन पर दूर तक चलकर कथाकार ने समस्याओं से रुबरु होने की कोशिश की है। बदलाव के लिये बेचैनी और अकुलाहट की प्रतिध्वनियां साफ सुनाई पड़ती है।
एक अलग मिजाज़ की कहानी भिनसार का कथा नायक प्रदीप पत्रकारिता को चुनौती के रुप में स्वीकारता है। जल्दी ही मोहभंग होने पर पुलिस की नौकरी के लिए लाईन में दिखकर उपहास का पात्र बन जाता है। बेरोजगारों के अन्तर्द्वंद्व को उकेरती यह कहानी पत्रकारिता के पीछे खड़ी सत्य से मिलाती है। छोटे-छोटे अखबारों और पत्रकारिता से जुड़ी महत्वकांक्षा और चापलूसी की खोजखबर लेती है। संग्रह की कहानी विसर्जन शराब माफिया के संगठित गुंडागर्दी के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोश का प्रतीक है। हीरा का यह कहना - धीरे-धीरे पूरा छत्तीसगढ़, उसी तरह जमीन पर गिरकर तड़पेगा, जैसा मेरा बाप तड़पा था और उसकी लाश पर आप लोग एक के बाद एक कारखाने लगाकर मुंह में मिश्री घोलते हुए कहेंगे कि पीछे की भूलो और आगे बढ़ो। हीरा सामाजिक प्रतिबद्धता से बंधा है, वह बदला देने की कला भी सीख रहा है। कहानियों के पात्र शोषण के खिलाफ एकजुट दिखाई देते हैं। वे अपनी कहानी कहते चलते हैं। औरत खेत नहीं संग्रह की कहानी पढ़ते हुए ऐसा लगा कि कथा साहित्य के मर्मज्ञों के पास जो गिने-चुने संग्रह पहुंचते हैं, उसी में वे शताब्दी का सार तलाश लेते हैं। राजधानियों से दूर-दराज़ बसे और पारिवारिक प्रतिष्ठानों से दूर के लेखक अपनी चिन्हारी नहीं बना पाते। जिसके वे वाजिब हकदार हैं। कथाकार का मूल्यांकन एक मान्य आलोचनात्मक दृष्टि से भी होना चाहिए।
आलोच्य संग्रह की एक बड़ी विशेषता उसकी भाषा है। एक निश्चित बिन्दु पर आकर कहानी का परा अर्थ बदल देने में सक्षम भाषा का प्रयोग कहानी की पठनीयता को अंत तक बनाए रखती है। समाजिक बदलाव की एक बड़ी लड़ाई की शुरुवात काफी पहले हो चुकी है। इस चौथे पड़ाव के बाद लेखक का संघर्ष और पैना होगा। परदेशीराम वर्मा को परिवेश के अनुरुप आंचलिक छत्तीसगढ़ी भाषा का, सहजता के साथ आवश्यकतानुसार प्रयोग कर लेने में महारत हासिल है। संग्रह की बड़ी शक्ति उसकी भाषा है। सुन्दर संसार रचने की अपनी कोशिश में पाठकों को भागीदार बनाती है। जीवन के अंधेरों में जीने वालों के लिये लिखना एक सच्चाई है तो, लिखे हुए को पढ़ना उससे बड़ी सच्चाई है। इसे अनदेखा कर हम कुरुपता के खिलाफ सौन्दर्यशास्त्र की रचनाकर संतुष्ट नहीं हो सकते।
संग्रह की कहानियों को हथियार मान लें तो धार बहुत तेज है। निर्मम प्रहार के लिये तैयार। उसकी मारकक्षमता पर विश्वासकर, यह तय कर लेना जरुरी है कि चोट कहां की जाय और शुरुवात कहां से हो।
- रवि श्रीवास्तव
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Wednesday, November 28, 2007
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