बापू, महात्मा गांधी, साबरमती का संत सेवाग्राम का सेवक, और राष्ट्रपिता, ये सब उसी संत के नाम हैं जिसकी मृत्यु पर अपने समय के महानतम विद्वान अल्बर्ट आइंस्टीन ने यह कहा था कि आनेवाली पीढ़ियाँ कदाचित ही यह विश्वास करेंगी कि सचमुच में गांधी जैसा कोई हाड़-मांस का आदमी इस धरती पर रहा होगा। महात्मा गांधी के बारे में ऐसे अनगिनत आप्त् वाक्य हैं जो सारे विश्व के महान व्यक्तितयों के द्वारा कहे गए हैं। जब से ग्लोबल जगत की कल्पना सामने आयी है, तब से एकमात्र महात्मा गांधी ऐसे दिव्य पुरुष हुए हैं जिनके चिरनिद्रा लीन होने पर विश्व के समस्त राष्ट्रों के झण्डे झुक गये थे।
प्राचीन भारत के सत्य शोधकों की यह परंपरा ही है कि महत्व सत्य के निवैयक्तिक रुप दिया जाय। व्यक्ति को छोड़कर उसके आविष्कृत सत्य की ही प्रतिष्ठा की जाय। उसी की पूजा की जाय। चारों ओर भयंकर ज्वालाओं के बीच खड़े होकर जिस महान ऋषि ने सर्वप्रथम अहिंसा की खोज की और और कहा - हिंसा नहीं, अहिंसा ही मानव का श्रेष्ठतम धर्म है। उस महानतम ऋषि का नाम कौन जानता है ? इससे दुनिया का कोई नुकसान तो नहीं हुआ। दुनिया के श्रेष्ठतम विचारक अज्ञात ही रह जाते हैं। केवल समय पाकर उनके विचार बुद्ध, महावीर, ईसा और हमारे गांधी आदि महापुरुषों के जरिए जाहिर होते हैं।
आवश्यक न होने पर भी गांधी का समकालीन होने के नाते यह बताना असहज नहीं है कि विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जिस मोहन को महात्मा नाम दिया उस मोहनदास का जन्म आश्विन बदी १२, विक्रम संवत १९२६ अर्थात २ अक्टूबर १८६९ ई. सन को काठियावाड (सौराष्ट्र) के छोटे से शहर पोरबंदर में माता पुतली बाई और पिता करमचंद गांधी (वैश्य) के घर में हुआ। पोरबंदर एक छोटी सी रियासत थी जिसके कुल दीपक करमचंद थे। पितृभक्ति, सत्यनिष्ठा और सेवा गांधी जी को विरासत में मिली थी।
रिश्तेदार एवं वैश्य जाति के विरोध के बाद भी १३ वर्ष की उम्र में विवाहित मोहनदास १८८७ में मेट्रिक की परीक्षा पास कर भावनगर कालेज का छात्र बने। पर वहां मन नहीं लगा। वह सितंबर १८८८ को लंदन चले गये, कानून की शिक्षा प्राप्त् करने के लिए।
बैरिस्टर की परीक्षा पास करने के बाद गांधी जी ने मुम्बई में वकालत प्रारंभ की पर भाषण कला की कमजोरी के कारण वे सफल नहीं हुए। सन् १८९३ में दादा अब्दुला एंड कंपनी फर्म के एक मामले में उन्हें दक्षिण अफ्रीका जाने का अवसर मिला। उन्होंने वहां जाकर देखा कि दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज भारतीयों के साथ भेदभाव का व्यवहार करते हैं। गांधी की आत्मा कचोट उठी। उन्होंने निर्णय कर लिया कि यहाँ भारतीयों को उनका नागरिक अधिकार दिलाकर ही दम लूंगा। इसके लिए उन्हें आफ्रिका में सन् १९१४ तक अर्थात २१ वर्ष से अधिक समय तक रुकना पड़ा। उनका अंग्रेजों से पहला संघर्ष ट्रांसवाल की राजधानी प्रिटोरिया में हुआ जब वे पहली बार अदालत में गए तब मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा परन्तु उन्होंने इंकार कर दिया। गांधी ने इस घटना को समाचार पत्रों में छपवा दिया, परिणाम यह हुआ कि तीन चार दिनों में ही दक्षिण अफ्रीका में उनकी प्रसिद्धि हो गई। अफ्रीका में भारतीयों के लिए किये गए गांधी जी के कतिपय कार्योंा का उल्लेख आवश्यक है। गांधी जी ने २२ अगस्त १८९४ को नैप्लाई इंडियन काँग्रेस की स्थापना की तथा भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़े। आपने नैपल विधान सभा चुनाव में भारतीयों को मताधिकार का अधिकार दिलाया।
सन् १८९४ में नैपल सरकार ने भारतीयों पर २५ पाउंड सालाना कर लगा दिया, इसका उद्देश्य था भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका से भगाना, किंतु गांधी के संघर्ष के कारण सरकार सफल न हो सकी। २५ वर्ष के तरुण गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में तहलचा मचा दिया। वे सन १८९६ में एक बार भारत आए किंतु परिवार के साथ पुन: दक्षिण आफ्रीका लौट गए क्योंकि उन्हे तो भारतीयों को मानवीय अधिकार दिलाने की चिंता थी। दक्षिण आफ्रीका में उन्होंने जो शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कष्ट सहें वे दिल दहलाने वाले हैं। दक्षिण आफ्रिका का काम समाप्त् होने पर जब वे भारत लौटने लगे, उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें अनेक उपहार मिले। वहां के एक भारतीय सेठ ने पत्नी कस्तूरबा को एक हीरे का हार भेंट में दिया। कस्तूरबा की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने सारे उपहारों के साथ यह हार भी बैंक में रख दिया। उन्होंने एक न्यास बनाया और कह दिया कि इस धन का उपयोग सार्वजनिक हित में किया जाय।
आफ्रीका में गांधी जी ने डर्बन में फिलिक्स आश्राम तथा जोहेन्सबर्ग से २१ मील दूर टाल्सराय आश्रम की स्थापना की। ये आश्रम ही संघर्ष के केन्द्र थे। सन् १९०६ के ११ सितंबर को गांधी जी ने सत्याग्रह सिद्धांत को परिभाषित करते हुए कहा था कि - बुरे कानून के सामने न रुकना ही सत्याग्रह है। इसी सत्याग्रह की ताकत पर गांधी जी ने दक्षिण आफ्रीका में भारतियों को सारे मानवीय अधिकार दिलवाये। अब तक गांधी जी आफ्रीका, इंग्लैंड एवं भारत में एक दबंग व्यक्ति के रुप में प्रख्यात हो चुके थे।
९ जनवरी १९१५ को इस गांधी को देखने के लिए सैकड़ों लोग मुंबई के अपोलो बंदरगांह पर एकत्र हो गए। भारत आकर गांधी जी ने पहले तो भारत का भ्रमण किया। दक्षिण में उस समय हरिजनों के साथ छुआछूत का व्यवहार होता था। उससे वे बहुत दुखी हुए। यह बात याद रखनी है कि गांधी जी के साथ एवं बाद में भी अनेक भारतीय साथी भारत आये थे। अत: कार्यक्रमों - सभा, कताई-बुनाई, अधूतोद्धार अन्याय के विरुद्ध संघर्ष, हिन्दी देश के सम्पर्क की भाषा, वकालत में नैतिकता, सेवा, समर्पण, गरीबी, बेरोजगारी, साफ-सफाई और अन्तत: देश की आजादी आदि को लेकर एक केन्द्र बनाना चाहते थे। अब तक गांधी जी बापू के नाम से संबोधित किए जाने लगे थे। वे प्रकृति के अनन्य प्रेमी थे अत: उन्होंने अदमदाबाद के पास बहने वाली साबरमती नदी के किनारे १५ मई १९१५ को आश्रम बनाया और उसका नाम रखा सत्याग्रह आश्रम, पर जनता ने उसे साबरमती आश्रम नाम दे दिया। एक बार जब एक हरिजन परिवार ने इस आश्रम में रहने की इच्छा व्यक्त की तब बापू धर्म संकट में पड़ गए। आश्रम वासियों एवं स्वयं पत्नी कस्तूरबा ने जब विरोध किया तब बापू ने कह दिया कि हरिजन परिवार मेरे साथ रहेगा तुम चाहो तो यहां से जा सकती हो। जब पत्नी स्वत: पति के समक्ष नतमस्तक हो गई तब सब बापू के प्रति श्रद्धावश नत-मस्तक हो गए।
इसके बाद गांधी जी ने क्रमश: बिहार के चम्पारन के नील आन्दोलन, अहमदाबाद के मिल मजदूर आन्दोलन, खेड़ा (गुजरात का जिला) के लगान आन्दोलन का नेतृत्व कर किसानों मजदूरों को सफलता दिलाई।
सत्याग्रह का श्रीगणेश - प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, सरकार ने अग्रेजों को दी गई सहायता के उपलक्ष्य में कुछ इनाम देने के लिए रोलेट कानून बनाया। पर यह कानून हमारी स्वतंत्रता पर आघात था। देश ने इसका विरोध किया। ५ अप्रैल १९१९ को मुंबई में हड़ताल हुई। गांधी जी ने अपनी प्रतिबंधित दो पुस्तकों हिन्द स्वराज्य एवं सर्वोदय की बिक्रीकर कानून को तोड़ा। यही सत्याग्रह का श्रीगणेश था। जगह-जगह रोलेट एक्ट के विरोध में सभाएं हुए। आन्दोलन और ब्रिटिश अत्याचार तेज हुए। अमृतसर में हड़ताल के बाद जलियां बाला बाग में सभा का आयोजन हुआ। पंजाब सरकार ने जनरल डायर को स्थिति संभालने के लिए भेजा। उसने आते ही सभा करने की मनाई कर दी। जनता ने उसकी उपेक्षा कर दी। डायर वहां ५० सैनिकों को लेकर पहुंचा और बिना सूचना के गोली चलाने का आदेश दे दिया। जलियावाला बाग (विशाल मैदान) में एक ही प्रवेश द्वार है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार ३७९ लोग शहीद हुए और ११३७ घायल हुए। पर वास्तविक आंकड़े अधिक हैं। इस आंदोलन के समय देशभर में हिंसा हुई। रेल पटरियां उखाड़ दी गई। जेल पर धावे बोले गए। अत: गांधी जी ने आन्दोलन वापस लिया और तीन दिन का उपवास किया।
असहयोग आन्दोलन - माटेग्यु चेम्सफोर्ड ने सुधार के नाम से सरकार के कुछ विभागों में भारतीयों को मंत्री पद देने की व्यवस्था अवश्य की थी किन्तु उन पर गवर्नर या वाइसराय का अंकुश था। गांधी जी को यह मंजूर नहीं था। अत: उन्हें विश्वास हो गया कि इस सरकार से कोई आशा नहीं की जा सकती। गांधी जी के मस्तिष्क में यह बात कौंधी कि अब सत्याग्रह के स्थान पर असहयोग आंदोलन का मार्ग अपनाया जाय, यद्यपि सत्याग्रह का आग्रह ही सदा रहेगा ही।
इसी बीच ३१ जुलाई १९२० को, स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है का उद्घोष करने वाले तेजस्वी नेता लोकमान्य तिलक का मुंबई में देहावसान हो गया। दूसरे ही दिन १ अगस्त १९२० को गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार से असहयोग युद्ध की घोषणा कर दी। बापू का यह सिद्धांत था कि वे दुश्मन को अंधेरे में रखकर नहीं मारना चाहते थे। वे तो ललकार कर सामने युद्ध के हिमायती थे। इसलिए उन्होंने कैसरे हिन्द पदक को लोटाते हुए वाइसराय को पत्र लिखा कि - ब्रिटिश सरकार लगातार अन्याय करती जा रही है और अन्यायकर्ता अधिकारियों की पीठ थपथपा रही है। ऐसी स्थिति में मेरा ब्रिटिश सरकार के न्याय में विश्वास नहीं रहा। इसलिए मैं यह निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मुझे ब्रिटिश सरकार को सहयोग नहीं देना चाहिए। मैं अपने देशवासियों को भी यही सलाह दे रहा हूं।
इस स्थल पर असहयोग को स्पष्ट करना आवश्यक है। शासन ने भारतियों को खुश करने के लिए रायबहादुर, रायसाहब, खान साहब, सर आदि उपाधियाँ विशिष्ट व्यक्तियों को दे रखी थीं। गांधी जी ने कहा सब लोग कचहरी का बहिष्कार करें और सारे विवाद आपस मे ंनिबटा लें। छात्र राष्ट्रीय शालाओं में पढ़ें, सरकारी कर्मचारी यथा संभव नौकरी छोड़ें। सारांश यह कि सरकार के साथ सब प्रकार का असहयोग किया जाय।
देश की काँग्रेस कमेटियों ने गांधी जी के प्रस्ताव का स्वागत किया। कोलकाता काँग्रेस इसमें अग्रणी रही। चारों ओर वंदे मातरम् की गंूज उठी। लोगों का लिबास बदला। धोती, कुर्ता व गांधी टोपी का चलन बढ़ा। विदेशी वस्त्र और वस्तु का बहिष्कार हुआ।
बारदोली सत्याग्रह के संदर्भ में गांधी जी को छ: साल की सजा हुई। वे यरवदा जेल में रहे। बीमारी के कारण उन्हें जल्दी छोड़ दिया गया। वहां से आकर वे चरखा, खादी, नशाबंदी, हरिजन उद्धार, हिन्दू-मुस्लिम एकता आदि रचनात्मक कार्यों में लग गए।
दिनांक ७ व ८ अगस्त १९४२ मुंबई की काँग्रेस कमेटी की बैठक में अँग्रेजो भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित कर भारतियों से कहा - करो या मरो । ९ अगस्त को ही बापू को यरवदा जेल भेज दिया गया। यह विशाल जन आन्दोलन था। विश्व-इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जब किसी अहिंसक आन्दोलन में देश की पूरी जनता ने भाग लिया हो। जब सारे नेता जेलों में बंद हो गए तब जनता हिंसक हो गई। रेल पटरियाँ उखाड़ी गई, टेलीफोन के तार काटे गए, पत्र पेटियों में तेजाब डाला गया, पुलिस पर आक्रमण हुए, खजाने लूटे गए, थाने जलाये गए। सब तरह की हिंसा हुई। स्थिति यह हुई मानों अग्रेजी राज्य समाप्त् हो गया। वाइसराय लार्ड लिनलिथगो ने हिंसा की जिम्मेदारी गांधी जी पर डाली। उन्होंने साफ शब्दों में कह दिया आपने मुझे जेल में डाल दिया, जिम्मेदार शासन है, मैं नहीं। पर इस हिंसा से बापू दुखी हुए। उन्होंने आत्मशुद्धि के लिए उपवास किया। बापू आगा खाँ महल में थे। यहीं पहले महादेव भाई देसाई चल बसे, फिर २२ फरवरी १९४४ को कस्तूरबा शांत हो गइंर् और ६ मई १९४४ को बापू को जेल से छोड़ दिया गया। पर १९४२ ने ही हमें १५ अगस्त १९४७ के स्वातंत्र्य सूर्य के दर्शन कराये। पर ३० जनवरी १९४८ को दिल्ली की प्रार्थना सभा में जाते समय ५ बजकर १२ मिनिट पर एक अतिवादी की गोलियों से बापू शहीद हो गए। उनके मुंह से निकला हे राम और ज्योति बुझ गई।
महात्मा गांधी और छत्तीसगढ़ -
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के देहावसान के बाद देश की राजनीति की बागडोर महात्मा गांधी के हाथ में आ गई। उन्होंने अहिंसात्मक सत्याग्रह के द्वारा ब्रिटिंश सरकार से लोहा लेने का मार्ग सुझाया। सन् १९२० में ही छत्तीसगढ़ में सत्याग्रह के सूत्रपात की स्थिति बन गई। हुआ यों कि धमतरी तहसील के कन्डेल ग्राम में किसानों पर नहर विभाग ने नहर के पानी की चोरी का झूठा आरोप लगा दिया। उनसे शासन ने नाजायज ढंग से जुर्माना वसूल करना चाहा। किसानों के मना करने पर उनके मवेशी कुर्क करने की योजना शासन द्वारा बनाई गई। नहर विभाग के अत्याचारों के विरोध में जुलाई १९२० में कंडेल ग्राम में एक सभा का आयोजन किया। इस सभा को पं. सुन्दरलाल शर्मा, नारायण राव मेघावाले और छोटे लाल बाबू ने संबोधित किया और निर्णय लिया गया कि कोई भी किसान जुर्माने की रकम नहीं देगा। इस पर अमल करने पर शासन ने किसानों के मवेशी कुर्क कर लिए।
किन्तु जब बाजार में मवेशियों की नीलामी की गई तब बोली लगाने वाला कोई भी नहीं मिला। यह छत्तीसगढ़ के किसान की एकता का सबूत है। यह सत्याग्रह दिसंबर तक चला, पर शासन का दमन कम नहीं हुआ। पं. सुन्दरलाल शर्मा ने गांधी जी से पत्र व्यवहार किया। उन्होंने आने की स्वीकृति दे दी। जब गांधी जी बंगाल के दौरे पर थे तब शर्मा जी स्वत: कोलकाता गए और उन्हें बीस दिसंबर १९२० को रायपुर लेकर आये। गांधी जी रायपुर से धमतरी और कुरुद गए। इसी बीच अंग्रेज शासन ने सत्याग्रहियों के सामने घुटने टेक दिए सत्याग्रह सफल हुआ। इसलिए गांधी जी धमतरी से ही वापस आ गए। उन्होंने रायपुर में महिलाओं की एक सभा को संबोधित किया। उन्होंने तिलक स्वराज्य फण्ड के लिए माँग की और देखते-देखते २००० रु. मूल्य के गहने एकत्र हो गए ।
बापू के छत्तीसगढ़ दौरे का ऐसा प्रभाव पड़ा कि पूरे छत्तीसगढ़ में सन् १९३० से १९४२ तक जितने भी आंदोलन हुए उन सब में पूरे छत्तीगसढ़ ने डट कर हिस्सा लिया। छत्तीसगढ़ के हिन्दी तथा छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार इतने प्रभावित हुए कि कवियों ने गांधी जी और उनके सिद्धांतों को सामने रखकर देशभक्ति की अनेक कविताएं लिखी।
गांधीवाद -
सच तो यह है कि गांधीवाद सरीखी कोई बात गांधी के संबंध में है ही नहीं। गांधी तो सत्य के शोधक थे और उनके जीवन का क्रमबद्ध विश्लेषण इस बात का साक्षी है। उनकी दृष्टि तो सदा इस देश के उत्थान पर रही। उनके समक्ष कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं था। वाइसराय से चर्चा करना या फिनिक्स आश्रम में चप्पल बनाना उनके लिए दोनों बराबर थे।
जब वे दक्षिण आफ्रीका से लौटकर भारत आये तब यहाँ चरखे से सूत कातने का चलन उठ चुका था। उन्होंने चरखा एवं खादी की उपयोगिता को समझा और लोगों को समझाया। उन्होंने सन १९२५ में अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना की। थोड़े ही दिनों में देश में ५० लाख चरखे चलने लगे। उन्होंने खादी को आजादी की लड़ाई की पोशाक बना दिया। आज इस देश की गरीबी से निजात पाने के लिए चरखा और खादी की जरुरत है।
गांधी जी कहा करते थे कि गो-रक्षा मानव के विकास इतिहास की सबसे बड़ी घटना है। गोरक्षा की भावना आदमी को जीव दया का पाठ पढ़ाती है। वे कहा करते थे कि गाय तो करुण रस की कविता है। यह हमें अहिंसा और दया सिखाती है। वे कहते थे माँ तो हमें दो साल ही दूध पिलाती है किन्तु गौ-माता जीवन भर। अत: इसकी रक्षा होनी ही चाहिए।
उपरोक्त दोनों बिन्दु देश की गरीबी से लड़ने के उत्तम शस्त्र हैं बशर्तें कि इन शस्त्रों का प्रयोग बुद्धिमानी से किया जाय। वास्तव में गांधी तो एक महान थे, चिंतक थे। वे सही अर्थ में संत एवं ऋषि थे इस कारण गांधी विचार में किसी किसी प्रकार का वाद खोजने की कल्पना नहीं करनी चाहिए। आज देश में जो विभिन्न राजनैतिक दल हैं उनके नाम ही यह घोषणा करते हैं कि उनका लगाव किसी विचारधारा विशेष से है। अन्य सब कुछ उनके लिए अछूता है। गांधी जी का जीवन विशाल था। वे तो प्रत्येक कर्म को सत्य और अहिंसा की कसौटी पर कस कर देखते थे। अपने इसी सिद्धांत के कारण उन्होंने राजनीति को एक नई ऊँचाई एवं गरिमाप्रदान की।
बापू ने जिस प्रजातंत्र की कल्पना की थी उसका तो आज अता-पता नहीं है। वे चाहते थे कि हमारे जन-प्रतिनिधि सादगी के साथ जीवन बिताये किन्तु ठीक इससे उल्टा हो रहा है। इससे अधिक दुख की बात यह है कि अनेक जनप्रतिनिधि नैतिकता को पूरी तरह छोड़ चुके हैं। इस संत पुरुष ने हमें जो मंत्र दिए उनका पालन करना शासन एवं जनता सबके लिए जरुरी है। देश और दरिद्र नारायण की सेवा, मानव की स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व, भय की मुक्ति, स्वार्थ त्याग, जीवन में सत्य, अहिंसा और प्रेम। यही उनके मूल मंत्र थे। गांधी जी का जीवन तो कर्मयोग का उदाहरण था। शारीरिक श्रम को वे कर्मयोग मानते थे।
बापू अहिंसा के निष्क्रिय रुप से पक्षधर नहीं थे। उनकी अहिंसा सक्रिय शक्ति है। उनका मत था कि यदि अहिंसा जन साधारण को प्रभावित नहीं कर सकती तो व्यक्ति के द्वारा उसकी साधना व्यर्थ है। अहिंसा ऐसा तभी कर सकती है जब उसमें किसी भी प्रकार की मिलावट न हो। अहिंसा का पालन करने के लिए बड़े साहस एवं शक्ति की आवश्यकता है। कमजोर व्यक्ति अहिंसा का पालन नहीं कर सकता, इसी लिए बापू कहा करते थे कि - अहिंसा तो मर्दों का शस्त्र है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी नहीं है बल्की मजबूती का नाम महात्मा गांधी है।
गांधी जी तो केवल सत्य-शोधक थे। उनके लिए सत्य अहिंसा प्रेम और परमात्मा सब एक ही थे। उनके जीवन के सारे प्रयोग अहिंसा के माध्यम से सत्य को पाने के लिए ही थे, इसलिए सत्य और अहिंसा से बड़ा उनका कोई संदेश हो ही नहीं सकता।
- जमुना प्रसाद कसार
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Wednesday, November 28, 2007
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