Wednesday, November 28, 2007

माता राजिम, सबरी, बिलासा और उनकी छत्तीसगढ़ी भाषा # १२ अगस्त को हरि ठाकुर सम्मान २००७ से विभूषित होने के अवसर पर विशेष # याद-ए-दीवान

माता राजिम, सबरी, बिलासा और उनकी छत्तीसगढ़ी भाषा - परदेशीराम वर्मा

भोजपुरी इलाके में प्रचलित फाग गीतों में क्रांतिवीर कुंवर सिंह कुछ इस तरह याद किये जाते हैं -

बाबू कंुवर सिंह तोहरे राज बिनु
अब न रंगाइब केसरिया।

बाबू कुंवर सिंह स्वतंत्रता और अस्मिता के प्रतीक थे। किसी कवि ने इन पंक्तियों का सृजन किया। जब जब जन-मन अपने सम्मान के लिए व्याकुल होकर आंदोलित हो उठता है तब तब जन कवि और गायक इस तरह की रचनाआें का सृजन करते हैं। ऐसी रचनाआें में समकालीन स्थितियों का प्रमाणिक इतिहास दर्ज रहता है।

पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन में छत्तीसगढ़ के प्रमुख कवियों ने भरपूर योगदान दिया। हरि ठाकुर, बसंत दीवान जैसे दिग्गज छत्तीसगढ़ी हमारे बीच नहीं हैं जिन्होंने आंदोलन को अपनी रचनाओं से मजबूत किया। इस दौर में रची उनकी कविताएं आज भी लोकप्रिय है।

संत पवन दीवान, डॉ. खूबचंद बघेल के छत्तीसगढ़ भातृसंघ की आवाज बन गए थे।

हर जवान जब बन जाएगा दीवाना,
छत्तीसगढ़ बन जायेगा तेलंगाना।

यह बेहद चर्चित कविता उसी दौर की रचना है। तेलंगाना तो अस्तित्व में नहीं आया मगर छत्तीसगढ़ बन गया। अब इस पंक्ति का एक अर्थ यह हो सकता है कि तेलंगाना भी छत्तीसगढ़ की राह पर चलकर अपना हक लेगा। यानी कि तेलंगाना भी बन जायेगा छत्तीसगढ़। इस कविता की यह पंक्ति दोनों तरफ अर्थ देती है। रामचरित मानस की पंक्ति - पहिराई न जाहि। की तरह अर्थपूर्ण हैं ये पंक्तियां। सीताजी श्रीराम को वरमाला पहना कर जा नहीं पा रहीं, एक अर्थ यह है, और दूसरा है पहनाते नहीं बन रहा। यह अर्थ भी दीवान जी ही अपने प्रवचनों में बताते हैं। संत पवन दीवान विदग्ध कर देने वाले अद्भुत वाग्मिक हैं। वे कहते भी है कि बोलने में सारी उर्जा लग जाती है इसलिए अब लिखना कम हो गया है। लेकिन उन्होंने जितना लिखा है वही उनके अमरत्व के लिए पर्याप्त् है। विगत दो दसक से वे केवल राजनीतिज्ञ और प्रवचनकार के रुप में चीन्हे जाते हैं।

साहित्यकारों के बीच वे जब भी आये अपनी छाप छोड़ गये। आज भी कविता मंचों पर उनकी उपस्थिति आयोजन को अखिल भारतीय और यादगार बना देती है।

कम लिखने वाले संत पवन दीवान ने पिछले दिनों छत्तीसगढ़ी पर बेहद प्रभावी कविता लिखी। इस कविता में छत्तीसगढ़ी भाषा और छत्तीसगढ़ियों के बारे में बहुत सटीक और तर्कपूर्ण सम्मति है।

यह भी दुर्लभ संयोग है कि सात तारीख को ही उन्होंने इसका सृजन किया। ०७.०७.०७ के संयोग पर प्रमुदित होते हुए भाई रवि श्रीवास्तव ने बताया कि कृष्ण पक्ष की सप्त्मी है और दिन भी सातवां अर्थात शनिवार है। रवि भाई का तर्क सुनकर दीवान जी ने अट्टहास करते हुए कहा कि कुछ नहीं रहता है तब तो तुम जमा देते हो रवि, आज तो तीन सात पहले से है, आज जो न जमाओ कम है।

उनकी इस टिप्पणी पर खूब तालियां मिली। कुछ रवि भाई को और बहुत कुछ दीवान जी को। इस कविता का पाठ दीवान जी ने किरवई आश्रम में किया। पहले कविता आप पढ़ें । पढ़ते हुए कल्पना भी कर सकते हैं कि दीवान जी इसे किस तरह स्वर दे पाये होंगे।

छत्तीसगढ़ मन के आशा ये छत्तीसगढ़ी,
राजिम सबरी अऊ बिलासा के छत्तीसगढ़ी।
सब भाषा बिन मांगे भोगथे राज,
फेर बनगे हे काबर एक तमाशा छत्तीसगढ़ी।
चारों डाहर ले पेलत हे आंधी अऊ बड़ोरा,
घुरत हे बनके जइसे बताशा छत्तीसगढ़ी।
देश के सेवा म कभू पाछू नई रिहिस,
राजा रमन अऊ जन जन के भाषा छत्तीसगढ़ी।

छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए समर्पित इस कविता में घुरगे हे जइसे बनके बताशा छत्तीसगढ़ी बहुत महत्वपूर्ण है। छत्तीसगढ़ी दूसरों के दूध में बताशे की तरह घुलकर उसकी मिठास बढ़ाता है। इस विशिष्ट स्थिति पर दीवान जी जैसे संत कवि ही ऐसी टिप्पणी कर सकते थे। मिठास घोलने वाले बताशे की याद फिर नहीं रहती। केवल मीठे दूध का आस्वाद याद रहता है।

चंदूलाल चंद्राकर ने ऐसी ही बात कही है। चूंकि चंदूलाल चंद्राकर भी छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी के लिए लड़ने वाले सफलतम सेनापति के रुप में याद किये जाते हैं इसलिए यह दुर्लभ संयोग यहां उल्लेख योग्य लग रहा है। उन्होंने कहा है कि छत्तीसगढ़ी व्यक्ति मीठे नीम की पत्ती की तरह होता है। कढ़ी में बघार के लिए उसका उपयोग होता है लेकिन कढ़ी खाते समय सबसे पहले उसे निकाल कर फेंका जाता है।

त्तीसगढ़ राज्य बन गया। राज्य बनने के बाद धीरे-धीरे आयोग आदि बने मगर उसमें वर्चस्व गैर-छत्तीसगढ़ियों का हो गया। छत्तीसगढ़ी एकता मंच ने एक प्रपत्र बनाकर सभी विधायकों, सांसदों एवं मुख्यमंत्री को सौंपा है। उसमें स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ के शासकीय एवं निजी विश्वविद्यालय में केवल एक छत्तीसगढ़ी व्यक्ति कुलपति है। मंडल और आयोग २३ है जिनमें सिर्फ छ: पर छत्तीसगढ़ी हैं, शेष पर दीगर प्रांत के भाग्यशाली विद्वान बैठे हैं। इस तरह छत्तीसगढ़ी व्यक्ति बताशा और मीठे नाम की पत्ती की तरह केवल स्वाद बढ़ाने के लिए अपना सर्वस्व होम कर रहा है।

ऐसी विकट परिस्थिति में भी डाक्टर रमन सिंह छत्तीसगढ़ियों के लिए कुछ ऐसा कर जाते हैं कि वे सब कष्ट भूलकर जय जयकार पर उतर आते हैं।

भाषा से संबंधित निर्णय ऐसा ही निर्णय है। विधान सभा में संकल्प पारित करने का संकल्प हर छत्तीसगढ़ी को भीतर से आल्हादित कर गया है। यह संयोग ही है कि केन्द्र में भाजपा सरकार थी तब राज्य बना और छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार है तब भाषा का मान रखने का संकल्प पारित हो रहा है।

दीवान जी ने इसीलिए लिखा - राजा रमन अऊ, जन जन के भाषा छत्तीसगढ़ी।

कुछ निर्णयों के कारण राजकाज चलाने वाले इतिहास में सदा के लिए ससम्मान याद किये जाते हैं। रमन सिंह जी का यह निर्णय उन्हें निश्चित तौर पर अलग सम्मान जनक दर्जा दिलाने वाला है।

इस संदर्भ में भाषा के लिए लड़ने वाले सभी लोग बधाई के हकदार हैं। विशेष रुप से यहां याद आते है प्रतिपक्ष के उपनेता पाटन विधायक श्री भूपेश बघेल। श्री भूपेश बघेल १९९५ से लगातार अगासदिया के आयोजनों में स्वाभिमानी छत्तीसगढ़ के लिए हुंकारते रहे। उनके द्वारा विराट स्वाभिमान रैलीका आयोजन रायपुर में किया गया। ठीक उसके बाद छत्तीसगढ़ राज्य बना। दृष्टि संपन्न जन-नेता निर्णयों के कारण और दूरदृष्टि के कारण ही यशस्वी बनते हैं । यह भी एक संयोग है कि श्री भूपेश बघेल ने ही छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए लगातार धमतरी, रायपुर, भिलाई, राजनांदगांव, बिलासपुर में आयोजित वैचारिक आंदोलन को सम्बल दिया। वे इन आयोजन में एक विनम्र भाषा-प्रेमी के रुप में आये। भाषाविद् यशस्वी विद्वान डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के जामाता श्री भूपेश बघेल का संस्कार उन्हें रचनाकारों से जोड़ देता है। वे १९ जुलाई को डॉ. खूबचंद बघेल जयंती पर भाषा रैली निकालने को संकल्पित हुए और विधान सभा में भाषा के लिए संकल्प सुनिश्चित हुआ। यह भी एक सुखद संयोग है।

छत्तीसगढ़ी भाषा में लेखन लगातार हुआ है। छत्तीसगढ़ी की कृतियों पर अभी देश के मूर्धन्य विद्वानों का ध्यान नहीं गया है। भाषा को मान मिलेगा तो भाषा से जुड़े आम जन और रचनाकार भी समृद्ध होंगे।

०५.१२.०३ को प्रकाशित लेख में डॉ. रमन सिंह ने साफ लिखा था कि छत्तीसगढ़ी को भाषा का दर्जा दिलाना हमारे विशेष कर्त्तव्यों में से एक है। जून ०७ में छत्तीसगढ़ी भाषा मंच की पहल पर लेखकों से उन्होंने मुख्यमंत्री निवास में भेंट किया था। वहां भी भाषा के लिए प्रधानमंत्री से मिलकर बात करने का संकल्प उन्होंने दुहराया था।

छल प्रपंच से भरी दुनिया में चलने वाली राजनीति से अति परिचय के कारण अरुचि और अनादर का भाव जन-मन में गहराई तक बैठ गया है। लेकिन ऐसे दौर में भी अपने द्वारा दिये गए वचन के लिए साहसिक और राजधर्म के अनुकूल कदम उठाना हर किसी के लिए सहज नहीं हो सकता।

यह कदम उठाकर छत्तीसगढ़ सरकार के प्रमुख डॉ. रमन सिंहने दर्द से कराहते छत्तीसगढ़ पर मरहम लगा दिया है।
दीवान जी ने ठीक ही लिखा है कि छत्तीसगढ़ी वंदनीय माताओं की भाषा है। हम उनकी संतान हैं जिनकी भाषा छत्तीसगढ़ी रही ...

छत्तीसगढ़ी मन के भाषा छत्तीसगढ़ी,
राजिम, शबरी अऊ बिलासा के छत्तीसगढ़ी।

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१२ अगस्त को हरि ठाकुर सम्मान २००६ से विभूषित होने के अवसर पर विशेष - संत कवि पवन दीवान

ये महतारी के कोरा म, सदा सरग दरबार,
दूध असन छलकत जावत हे, महानदी के धार ।

ये पंक्तियां हरि ठाकुर की है। महानदी पर एक और चर्चित कविता है ...
लहर लहर लहरावै हो, मोर महानदी के पानी,
सब ल गजब सुहावय जी, मोर खेती के जुवानी।

ये पंक्तियां है संत कवि पवन दीवान की। महानदी और छत्तीसगढ़ की महिमा के गायक इन दो कवियों की कविता और समर्पित जीवन की कथा को जाने बगैर कोई भी व्यक्ति छत्तीसगढ़ की आत्मा से परिचित नहीं हो सकता।

हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, गोवा मुक्ति आन्दोलन के सिपाही और छत्तीसगढ़ी आंदोलन के चमत्कृत करने वाले सेनापति थे। उनकी परंपरा के पोषक संत कवि पवन दीवान को इस वर्ष हरि ठाकुर अगासदिया सम्मान १२ अगस्त को कल्याण महाविद्यालय सभागार में प्रदान किया जायेगा।

संत कवि पवन दीवान का व्यक्तित्व जटिल है। वे दिनभर अट्टहास करते हैं मगर करीब जाने पर उनकी हंसी में छुपी उदासी को साफ महसूस किया जा सकता है। महानदी के किनारे बने आश्रम में रहकर तरह तरह की साधना करने वाले कवि पवन दीवान के अट्टहास में छिपे दर्द को महसूस करते हुए बरबस ये पंक्तियां याद हो आती है-

हमने सीखी है दरिया से पानी की पर्दादारी,
उपर उपर हंसते रहना, गहराई में रो लेना।

दीवान जी लगातार कटाक्ष झेलते हैं। उन पर फब्ती कसने वाले भी कम नहीं है। इस पार्टी से उस पार्टी में सहजता से उनकी आवाजाही का भी मखौल लोग उड़ाते है। उनकी कविता को भी लोग सतही कह देते हैं। उन्हें सुविधाभोगी और अतिमहत्वाकांक्षी तक कहा जाता है लेकिन इन सब आरोपों के बावजूद उनके सामने कोई क्यों खड़ा नहीं हो पाता । यह एक रहस्य मैं कभी समझ नहीं पाया। मैं उन्हें राजनैतिक मंचों पर भी बोलते सुनता हूं। साहित्यिक मंच पर भी वे भरपूर प्रभाव छोड़ते हैं। भागवत मंच के तो वे चमत्कारी व्यास हैं ही। कविता के मंच पर उनके खड़े होते ही अन्य कवियों की ऐसी दशा हो जाती है कि धनुष भंग प्रसंग में मानसकार की लिखी इन पंक्तियों की याद हो आती है।

पिता सहित लै लै निज नामा,
करन लगै सब दण्ड प्रनामा।

संत कवि पवन दीवान को छत्तीसगढ़ पर गर्व है और छत्तीसगढ़ को पवन दीवान पर। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद वे इस दौर के सर्वाधिक मान्य, सम्मानित और विलक्षण महापुरुष हैं। अंतर्विरोधों के बीच ही शायद महानता का विकास होता है। दीवान जी की जीवन शैली एकदम छत्तीसगढ़ी है। वे संग्रही नहीं हैं। योजनाकुशल भी नहीं। प्रतिहिंसा में उनका भरोसा नहीं है। हाथ में आई चीज गायब हो जाती है तो व्यथित हो लेते हैं। मगर छीन लेने वाले को शत्रु नहीं मानते। योग्यता का मान नहीं होता तो उदास हो जाते हैं। मगर अधिकार के लिए मरने मारने पर उतारु नहीं होते। उनके पास सब कुछ है मगर जो है वह दिखता नहीं। वे लाखों रुपया प्रतिवर्ष प्रवचन से कमाते हैं, सैकड़ों एकड़ जमीन है, दाता उनके आगे झुक झुक पड़ते हैं मगर कुटिया फिर भी खाली है। न ढंग का पलंग है, न तरीके के चार गिलास। आप दो मित्रों के साथ अचानक उनके आश्रम चले जाये तो हौंला के ऊपर धरी गिलास को उठाकर वे पंप से पानी भरेंगे और आपको खुद लाकर देंगे। न सहायक है न कोई सेवक। आप अकबका कर यह कहते हुए उठ खड़े होंगे - अरे रे महराज जी, ये आप क्या कर रहें हैं। तो हंसकर कहेंगे - पहले दस मिनट पानी को चलने दो। गंधक की गंध आती है। उसके बाद ठीक पानी आता है। यह आपके ऊपरी दुहरी मार है। मगर यह सिलसिला यहीं रुकने वाला भी नहीं है। ऐसे चमत्कार आप लगातार देखेंगे।

संत कवि पवन दीवान ७७ में ही मध्यप्रदेश के जेल मंत्री रह चुके हैं। जेलों के कर्मियों ने तब कुछ मांग रख दिया। संत कवि पवन दीवान मांगों से सहमत हो गये। वे हड़ताल स्थल पर भी जा बैठे। उन्हें लगा कि कैदियों से बदतर स्थिति तो जेल कर्मचारियों की है। तत्कालीन सरकार ने जब उनकी सिफारिश को नहीं माना तो वे स्तीफा देकर राजिम आ गये। साधु प्रकृति के श्री कैलाश जोशी तब मुख्यमंत्री थे। वे उन्हें खोजने राजिम तक आये मगर दीवान जी नहीं मिले।

दीवान जी जब छिपते हैं तो लगभग अदृश्य हो जाते हैं। पंडित श्यामाचरण शुक्ल के सामने प्रतिद्वंदी योद्वा के रुप में जब पे खड़े हो गये तो राजिम के भात बर दाऊओं में खलबली मच गई। वे शुक्ला जी के हित के लिए उन्हें बिठाने के लिए खोजते फिरे। रवि श्रीवास्तव जैसे उनके सहकाव्यापाठी चतुर लाला भी उन्हें तब खोज न पाये। इस विफलता के कारण अपने चाच से रवि भाई को खूब डांट खानी पड़ी। मगर दीवान जी गायब हुए तो तभी प्रकट हुए जब लंगोटी की जय-यात्रा का मुहुर्त निकल आया। मैंने उस अवसर पर लंगोटी शीर्षक एक गजल भी लिखी जिसकी दो पंक्ति इस तरह है -

जो लोग कसते आये थे पैसों का लंगोटा,
राजिम में उनको पाठ पढ़ाती है लंगोटी।

मैं विगत ३५ वर्षोंा से लगातार दीवान जी का यश गाता हूं। लेकिन न मैं उनका मित्र हूं, न प्रिय व्यक्ति और न ही अंतरंग सहयात्री। यह हैसियत बहुतों को प्राप्त् है मगर तमाम प्रयास के बावजूद मैं केवल उनका चारण ही कहलाता हूं जिसका मुझे गहरा संतोष है। ऐसे महान व्यक्ति को समझने जानने का अवसर मुझे भी मिलता है यही सोचकर मुझे खुशी होती हे। मुझ पर उनकी कृपा भी है। चेले पर जैसी गुरु की कृपा होती है। पिछले दिनों भिलाई के मेरे एक मित्र ने उनसे शिकायत करते हुए ठीक ही कहा कि आपके इस परदेशी चेले की चाल बाहर से छत्तीसगढ़ में आये हमारे जैसे प्रतिभाशाली लोगों को पसंद नहीं है। हम इसे घातक समझते हैं। आप भी सतर्क रहिए। उसके कथन को दीवान जी ने विनोद में ही लिया। मुझे बताते हुए वे खूब हंसे।

बस यही एक बिन्दु है जहां दीवान जी और मेरी स्थिति एक जैसी है। बाहरी प्रतिभा संपन्न गुणी लोग न दीवान जी को पसंद करते है न मुझे। उन्हें हर चंद यह डर लगा रहता है कि ऐसे तत्व अगर प्रभावी हुए तो उन्हें अड़चन हो जायेगी। उन्हें जानना चाहिए कि छत्तीसगढ़ माता कौशल्या का मायका हे। यहां भूमिपुत्र सर्वहारा होकर भी प्रसन्न रहता है। बाहर से आये लोग अगर कहीं निश्चिंत रहकर निर्विघ्न अपनी जय यात्रा रख सकते हैं तो केवल छत्तीसगढ़ में। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। इसीलिए तो मंत्र की तरह दो पंक्ति की धरोहर सौंपकर हरि ठाकुर चले गए ...

लौटा लेके आने वाला इहां टिकाइन बंगला,
जांगर टोर कमाने वाला, हे कंगला के कंगला।

डॉ. परदेशीराम वर्मा

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संत कवि पवन दीवान के आश्रम के पूर्व अध्यापक राजनांदगांव के ट्रेजरी ऑफीसर साहित्यकार का मार्मिक पत्र
याद-ए-दीवान

- अरविन्द मिश्रा

बड़े भाई परदेशी जी,
सादर प्रणाम।

मुझे आपने स्वामी पवन दीवान जी से जुड़े संस्मरण लिखने का कठिन विषय दिया है। दरअसल किसी अंतरंग व्यक्ति से संबंध तो सहज होता है, लेकिन उनके बारे में लिखना बहुत कठिन होता है।

महात्मा गांधी की जीवनी लिखने के लये कहा जावे तो वह सरल है क्योंकि वे मेरे अंतरंग नहीं थे। लेकिन मुझे मेरी पत्नी की जीवनी लिखने को कहा जाये तो वह जटिल है। उससे भी कठिन आत्मकथा लिखना है। सुप्रसिद्ध साहित्यकारों और विद्वानों ने साहित्यिक रचनायें आसानी से किया है, लेकिन उन्हें अपनी आत्मकथा लिखने में कठिनाई महसूस हुई है। बहुत समय भी लगा है। अपने अभिन्न के बारे में कुछ लिखना आत्मकथा लिखने के समान है।

आत्मकथा लिखने में एक सुवधिा यह है कि अपने बारे में कुछ कहना है तो अच्छाई और बुराई दोनों कही जा सकती है, लेकिन अपने अनन्य के बारे में कुछ कहना हो तो असमंजस की स्थिति होती है। शब्द जंजीरों से बंधने लगते हैं।
स्वामी जी से जुड़े संस्मरण लिखने से पहले उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ जिक्र करना चाहूंगा। श्री पवन दीवान सही मायने में केवल सन्यासी साहित्यकार है। इस बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिये मैं यह बताना चाहूँगा कि साहित्यकार किसे कहते हैं और सन्यासी किसे कहते हैं। हालांकि यह छोटा मुँह और बड़ी बात होगी। आपको यह सब बताना मेरी धृष्टता होगी। छोटा मुँह सही, लेकिन मेरी बड़ी नहीं वरन् छोटी सी बात आप सुन लीजिये।

हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैंकि साहित्य समाज का दर्पण है। एक लंबे समय से, साहित्यकारों की समाज के प्रति क्या भूमिका रही है, यह पढ़ते आ रहे हैं। यह अवलोकनीय है कि आज की अपेक्षा प्राचीन साहित्यकारों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण रही है। तुलसी, कबीर, मीरा, सूरदास, रैदास इत्यादि युग-युग में साहित्यकार हुए। प्राचीन साहित्यकारों ने कभी अपनी रचनाआें को पुस्तकाकार देकर किसी राजे महाराजे से विमोचन करवाने की जुगत नहीं की। आज का तुलसी या कबीर अपनी रचनाआें के प्रकाशन के लिए राजनेता का बाट जोहता है। अपना महत्वहीन संकलन विमोचित करवाकर गौरवान्वित महसूस करता है। पैसा खर्च कर समीक्षा करवाता है। स्वयं के पैसे से शाल श्रीफल खरीदकर आयोजकों को देता है, और अपना अभिनंदन करवाता है।

क्या मीरा बाई ने कभी मेकअप कर अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में कविता पढ़ने और पैसा कमाने की बात सोची थी। मेरा कहने का मतलब यह है कि प्राचीन साहित्य को आम जनता स्वाभाविक रुप से आत्मसात करती थी। उस जमाने के कई साहित्यकारों ने अपनी रचनायें लिपिबद्ध नहीं किया लेकिन प्रबुद्ध नागरिकों ने उनकी सार-सार बातों को सुनकर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित किया जो आज रामचरित मानस, कबीर साहित्य, मीरा के गीत सूरदास की पदावली के रुप में हमारी धरोहर है।

ये बातें शायद आपको अनर्गल लगे लेकिन स्वामी जी के बारे में बताने के पहले यह जिक्र करना जरुरी था। मैं उनकी तुलना उन्हीं प्राचीन साहित्यकारों से करता हूँ। यह उनकी झूठी तारीफ नहीं इसे आगे सिद्ध कर रहा हूँ। उन्होंने कभी अपनी रचनायें संकलित नहीं किया। उनके पास रचनाओं की कोई पूर्ण डायरी नहीं है। सब कुछ बिखरा हुआ है। मैंने एक बार उनसे आग्रह किया कि आपकी प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाओं को संकलित किया जाये तो उन्होंने कोई रुचि प्रकट नहीं किया। इस दृष्टिकोण से मैं उन्हें सन्यासी मानता हूं कि अपनी बातों को संकलित कर प्रचारित करने में उन्हें संकोच महसूस हुआ। फिर मेरे बार-बार आग्रह करने पर वे सहमत हुए तो फूल नाम की एक बुलेटिन जैसी पत्रिका शुरु हुई। उन्हें यह पत्रिका पसंद आई। उन दिनों मैं उनके ब्रम्हचर्याश्रम में शिक्षक था। साथ ही देशबंधु का क्षेत्रीय पत्रकार था। मेरे रोजगार का कोई भविष्य बुद्धि से परे थे इसलिये प्रेस की शुरुआत नहीं हो सकी। कुछ समय बाद मैं प्रतियोगी परीक्षा में चयनित होकर शासकीय सेवा की ओर रुखसत हो गया। यानि उनका दृष्टिकोण अपनी रचना प्रकाशन से ज्यादा मुझे रोजगार उपलब्ध करवाना था। उन्होंने अपनी रचनाओं को पुस्तकाकार देकर राजनेता से विमोचन करवाने या शासकीय वाचनालयों में स्थापित करवाने का कभी प्रयास नहीं किया। शुरु में उन्होंने मंचीय कवि सम्मेलनों में खूब भाग लिया लेकनि कविता की ठेकेदारी कर पैसा कमाने का काम नहीं किया इसलिये वे मंचीय कवि सम्मेलनों से भी दूर होते गये। विदूषक कवियों को वे रास नहीं आये । जो कुछ भी जनता के लिये रचा। बिना किसी प्रकाशन के जन-जन की वाणी में उनकी कविताओं का वास है। आपको तो मालूम ही है कि उनकी रचनायें कितनी स्तरीय है। जो साहित्यिक पत्रिकाओं की शोभा हो सकती है। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन की ओर भी उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। लेकिन उनकी कविता गांधी, गौतम, कृष्ण, राम, बलराम बच्चों का पाठ्यक्रम हो सकता है। उनकी सारी बिखरी हुई रचनायें एक व्यवस्थित पुस्तक के स्वरुप में तो नहीं है लेकिन जनमानस में स्थापित अवश्य है । इसलिये मैं यह सिद्ध करना चाहता हूँ कि दरअसल वे एक सन्यासी साहित्यकार हैं। कहाँ तक सिद्ध कर पाया हूँ यह आपके मूल्यांकन पर निर्भर है।

स्वामी जी की आरंभिक शिक्षा दीक्षा ग्राम फिंगेश्वर से हुई। मेरे पिताजी उनके शिक्षक थे। उन दिनों मेंने पढ़ाई शुरु नहीं किया था लगभग चार-पांच साल का था। लेकिन उनकी सबसे पहली रचना मुझे आज तक याद है। वह रचना एक फिल्मी गाने की तर्ज पर आधारित थी सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था इसी गाने को उन्होंने हे माँ सरस्वती तुझे मैं नमन करुं श्रद्धा के दो फूल तुझे अर्पण करुं तर्ज दिया था जो उन दिनों राजिम अंचल के स्कूलों में गाया जाता था।

मेरे बाबूजी के वे सबसे प्रिय छात्र थे। बाबूजी उनके बाल्यकाल की अनेक रोचक और मार्मिक बातें बताते हैं जो चार्ली चैपलीन या राजकपूर की ट्रेजडी भरी कामेडी जैसी लगती है। एकबार वे मिडिल स्कूल में थे अपने साथीगणों के साथ आम चोरी करने गये थे आम तोड़ने के समय ही बगीचे का रखवाला आ गया। हड़बड़ी में सभी बच्चों ने अपने आमों को दीवान जी के झोले में डाल दिया। दीवान जी आम का बोझ लेकर भाग न सके और पकड़े गये। रखवाला उन्हें बाबूजी के पास लाया। बाबूजी ने रखवाले को उनके भोलेपन का अहसास कराया और समझाईस दिया। ये सन्यास भाव नहीं तो और क्या है?
छत्तीसगढ़ में पुराने समय से राजिम से साहित्यिक गतिविधियाँ आरंभ हुई है। जैसे मंचीय कवि सम्मेलन, काव्यगोष्ठियाँ, पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन आदि।

राजिम क्षेत्र में सन् ६५ से ७२ तक कवि सम्मेलनों का खूब दौर चला। स्वामी जी और श्री कृष्णा रंजन जी के नेतृत्व में काव्य क्रांति हुई। पृथक छत्तीसगढ़ उसी की देन है। उन दिनों कविता पाठ करने कविगण लगभग ४०-५० कि.मी. तक साइकिल से यात्रा करते थे। अन्य दूरस्थ स्थानों में बस या टैक्सी से यात्रा करते थे। कवि सम्मेलनों में १४-१५ कवियों को कुल ११ रुपये मिलते थे। यदि किसी सम्मेलन में ५१ या १०१ रुपये मिल जाते तो बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी।
एक बार की बात है ग्राम फिंगेश्वर में कवि सम्मेलन हुआ। उसमें ११ रुपये प्राप्त् हुए। सभी कविगण साइकिल से आ रहे थे। वे प्राय: चार-पांच किलोमीटर चलने के बाद किसी निर्जन स्थान पर विश्राम करते थे और पैसों का बंटवारा करते थे। उस दिन ग्राम बोरसी के पास एक नाले में रुके और पैसे के वितरण के लिये हमेशा की तरह तर्क-वितर्क करने लगे। उस दिन बहस कुछ बढ़ गई। दीवान जी तरुणावस्था में थे उन्हें कुछ जोश आ गया। उनकी कविताओं पर खूब वाहवाही होती थी इस बात की दलील देकर वे ७५ पैसे की बजाय १ रुपये की माँग करने लगे। इस बात को लेकर श्री रवि श्रीवास्तव भड़क उठे और उन्हें पकड़कर उनका पटका (अधोवस्त्र) निकालने की कोशिश करने लगे। दीवान जी डरकर भागने लगे। रवि जी उनका पीछा कर बहुत दूरी तक दौड़ते रहे। दल नायक श्री कृष्णा रंजन जी के बीच-बचाव से मामला शांत हुआ और स्वामी जी ७५ पैसे में ही मान गये।

यह भी उनका सन्यास भाव ही है। इस तरह वे सन्यासी साहित्यकार है।

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