Wednesday, November 28, 2007

मेरे प्रिय लेखक डॉ. परदेशी राम वर्मा

(१८ जुलाई को साठवीं वर्षगांठ) - पवन दीवान

मेरे प्रिय लेखक डॉ. परदेशीराम कोई अपरिचित नहीं है। कहानी, उपन्यास, संस्मरण, रिपोतार्ज, त्वरित राजनीतिक लेख, सीमक्षात्मक, निबंध, ऐतिहासिक एवं तथ्यात्मक, स्थापनाएं तात्पर्य यह है कि वर्तमान साहित्य का प्रचलित नवीन धाराआें में अवगाहन एवं विचरण उनकी लेखनी का स्वभाव है।
उनके चिंतन और लेखन का आधार और केन्द्र दलित, शोषित और इन्याय पीड़ित समाज है। राष्ट्र के कई हिस्सों में एक स्वर्णिम और गौरवशाली इतिहास के बाद एक अंधकार युग भी आता है। इस उथल पुथल और आंधी तूफान में उस हिस्से की जनता, इतिहास, संस्कृति और भाषा के साथ जाने अनजाने उपेक्षा और अन्याय का दौर चल पड़ता है। ईश्वरवाद और राष्ट्रवाद की आड़ में सरल और पिछड़े लोगों का शोषण होता रहा है। उनके हितों की उपेक्षा इनके अधिकारों का हनन और संविधान एवं मान्यता के द्वारा प्रदत्त अवसरों का छीना जाना इस तरह अन्याय की अक्षुण्ण परिपाटी का निर्वाध गति से संचालन जिससे गरीबी, बेरोजगारी, जहालत का मंजर और मानव अस्मता के साथ पग-पग पर खिलवाड़ एक तरह से इसे गुलामी का ही रुप कहा जा सकता है। इसलिए आजादी के संघर्ष पर भौतिक और मानसिक स्तर पर पूर्ण विराम नहीं लग सकता। यही राष्ट्रीय, सामाजिक और मानवीय चेतना है तथा जीने का अर्थ है। मिट्टी पर स्थापित आकाशदीप जो पूर्वजों के स्वेद से प्रज्जवलित है उसे बुझाने का प्रयास करता है लेकिन यह स्वाभिमान की शिखा अन्याय के सामने नतमस्तक नहीं हो सकती। देश के विभिन्न क्षेत्रों के साहित्यकार अपने गांव की माटी का ही तिलक लगाकर देश और संसार में सम्मानित हुए है।

परदेशीराम की लेखनी निरंतर गतिमान है। उनकी लिखने की क्षमता आश्चर्यजनक है। उनकी भाषा और शैली आम पाठक से लेकर गंभीर अध्येता तक रोचक और हृदय स्पर्शी है। वे कलम के एक ऐसे सिपाही है जो मानसिक और राष्ट्रीय दोनों सीमाआें पर युद्धरत रहे है और तैनात है। वे बन्दुक और लेखनी दोनो के सिपाही है। लिस तरह हल से किसान खेतों में फसल उगाता है उसी प्रकार लेखक कोरे कागज पर लेखनी से वैचारक क्रांति की फसले उगाता है। जिस तरह उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने किसान और मजदूर को अपने साहित्य का केन्द्र बनाया उसी तरह परदेशीराम ने गांव, किसान, मजदूर, गरीब, शोषित, दलित आदिवासी को अपने चिंतन और लेखन का आधार माना है। उसी कारण लोग उन्हें छत्तीसगढ़ का प्रेमचंद भी कहने लगे हैं।

उनके साहित्य का जिन्होने अध्ययन किया है वे अच्छी तरह समझते हैं कि उनके आलोचक कभी-कभी दुराग्रह के घेरे में आ जाते हैं। परदेशी ने कभी भी किसी संकीर्ण आधार पर किसी का भी पक्ष नहीं लिया। परंतु छत्तीसगढ़ी होने के नाते उनके छत्तीसगढ़ीयता न हो यह कैसे संभव है।

परदेशीराम केवल छत्तीसगढ़ तक ही सीमित नहीं है। यहां कोई कवि एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते ही अखिल भारतीय बन जाता है। परदेशी की रचनाओं का बंगला, तमिल, मराठी आदि भाषाआें में भी अनुवाद हुआ है और हो रहा है। यह प्रत्येक छत्तीसगढ़वासी के लिए गर्व की बात है। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है और परदेशीराम हिन्दी के लेखक है इसलिए वे राष्ट्र के लेखक है। किसी भी प्रादेशिक जनता और भाषा का विरोध हिन्दी नहीं हो सकता। छत्तीसगढ़ की गुणग्राही जनता ने राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसके लेखकों और कवियों का सदा सम्मान किया है। जो सम्मान करता है वह और उसकी भाषा भी सम्मान की अधिकारी है।

महान साहित्यकार स्व. कमलेश्वर ने परदेशीराम एवं लेखनी की प्रशंसा कर उनकी मार्गदर्शन किया है, उन्हे प्रोत्साहित किया हे। यह शोषित और उपेक्षित छत्तीसगढ़ का सम्मान बढ़ाना है। उसके लिए हम छत्तीसगढ़वासी स्व. कमलेश्वर का आभार मानते हैं।

मुझे बात का प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि भारतीय सेना में नियुक्त हो कर वह जिस प्रकार देश के दुश्मनों से लोहा लेता रहा उसी प्रकार सामाजिक विषमताओं और विसंगतियों से लोहा ले रहा है। एक सामाजिक सैनिक की तरह वह गरीब मजदूर दलित शोषित इंसान का सच्चा साथी है उसकी बुलंद आवाज है, ऊर्जा है और उम्मीद। छत्तीसगढ़ महतरी और भारतमाता का आशीर्वाद उसके साथ है।

भारत के प्रत्येक प्रदेश एवं अंचल में प्रत्येक समुदाय के अवतार महापुरुष, मार्गदर्शक और देश के लिए मरने मिटने वाले क्रांतिकारी हुए और इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। लेकिन प्राचीन दक्षिण कौशल अर्थात छत्तीसगढ़ के महापरुष को न्याय नहीं मिला बल्कि उन्हें मिटाने का भी प्रयास हुआ। अपना बर्चस्व कायम करने के लिए अपने से संबंधित हर वस्तु को बढ़ा-चढ़ा कर महत्व दिया गया और छत्तीसगढ़ के लोगों के गर्त में धकेलने का प्रयास हुआ। लेकिन अब डॉ. परदेशीराम जैसे छत्तीसगढ़ के अनेक लेखक और साहित्यकार उन्हें प्रकाश में लाने का भागीरथ प्रयास कर रहे हैं। यदि छत्तीसगढ़ के शोषण और उपेक्षा की बात निराधार होती तो उसे राज्य का दर्जा देने की जरुरत क्या थी ? छत्तीसगढ़ राज्य जो बन गया लेकिन उसकी भाषा राजभाषा नहीं बनीं। भाषा के बिना राज्य अधुरा है। डॉ. परदेशीराम वर्मा छत्तीसगढ़ी भाषा को राजभाषा का पद दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके साथ पूरा छत्तीसगढ़ है। ईश्वर जनभावना की अवश्य रक्षा करेगा और प्रत्येक छत्तीसगढ़ी स्वयं को सम्मानित महसूस करेगा।

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