छत्तीसगढ़ी से बना छत्तीसगढ़ राज्य - पवन दीवान
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए संघर्ष १९५६ के बाद तेज हुआ। स्वतंत्रता के पूर्व देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में प्रचलित भाषा से जुड़े लोग अपनी पहचान के लिए चिंतित नहीं थे। सब मिलकर देश की आजादी के लिए लड़ते रहे। जब आजादी के बाद भाषावार प्रान्त बना तब उन क्षेत्रों के लोगों की चिंता बढ़ी जिनकी प्रभावी भाषा और संस्कृति को रेखांकित नहीं किया गया। छत्तीसगढ़ एक ऐसा ही क्षेत्र था जिसे वाजिब महत्व नहीं मिला। मध्यप्रदेश बना। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के विधायकों की भूमिका निर्णायक होने लगी।
डॉ. खूबचंद बघेल ने १६ नवंबर १९६७ को एक लेख लिखा। इसमें उन्होंने लिखा कि छत्तीसगढ़ का महत्व निरंतर बढ़ता जा रहा है क्योंकि जनसंख्या के अनुपात में करीब ७० व्यक्ति विधान सभा में चुनकर जावेंगे। ऐसी स्थिति में राजनैतिक सत्ता प्रािप्त् की दृष्टि से निरंतर सोचने वाले राजनीतिज्ञों के सम्मुख छत्तीसगढ़ बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। बहुमत को मुट्ठी मेंे रखने के लिए गंदी पेशबंदी अधिक और ऐसी ही रही है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
आजादी के बाद छत्तीसगढ़ अंचल के पिछड़ेपन और दब्बू स्वभाव का लाभ लेने वाले साहसी लोग धीरे-धीरे आश्वस्त होते गए। वे समझ गए कि यह निरापद क्षेत्र है। यहां के लोग प्रतिरोध नहीं करते। हक के लिए लड़ने मरने का जज्बा यहां नहीं के बराबर है। व्यापार और नौकरी तो गैर-छत्तीसगढ़ियों के हाथ में था ही। धीरे-धीरे लगा कि राजनीति के क्षेत्र में भी जोखिम कम और लाभ अधिक है। राजनीति में धन और बल की तब भी जरुरत थी। अपने मनोनुकूल व्यक्ति को धन बल का सम्बल देकर जो लोग चुनाव जितवा रहे थे वे स्वयं मैदान में आने के लिए व्यग्र हो उठेऔर धीरे-धीरे विगत तीस वर्षोंा में छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति से दूरी बनाये रखकर चलने वाले गैर-छत्तीसगढ़ी लोग भी छत्तीसगढ़ से चुनकर जाने लगे। इनकी संख्या निरंतर बढ़ने लगी। आज छत्तीसगढ़ के प्रमुख शहरों में इन्हीं की तूती बोलती है। छत्तीसगढ़ी नेताआें की स्थिति शहरों में लगातार कमजोर हो रही है। यही स्थिति गांव में भी बने इसका इंतजाम भी हो रहा है। गांवों की जमीनें गैर-छत्तीसगढ़ी व्यापारी खरीद रहे हैं। कारखाने सब गैर-छत्तीसगढ़ियों के हैं।
ीसगढ़ में आर्थिक, प्रशासनिक और राजनैतिक सत्ता में निर्णायक भूमिका गैर-छत्तीसगढ़ियों की है। इसलिए जब भी छत्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, स्वाभिमान के लिए एकताबद्ध होकर लोग आगे बढ़ते हैं तब उन पर अप्रत्यक्ष हमले शुरु हो जाते हैं। धीरे-धीरे भय और प्रलोभन प्रभावी होने लगता है और बिखराव शुरु हो जाता है। यह १९५६ से आज तक का इतिहास बताता है।
छत्तीसगढ़ राज्य इस तरह अचानक बन जायेगा यह विश्वास बहुतेरे शक्तिमंतों को भी नहीं था। राज्य बनने के कुछ वर्ष पूर्व तक बड़े राज्य की हिमायत करने वाले लोग छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण का विरोध करते थे। वही आज छत्तीसगढ़ राज्य बनने का सर्वाधिक लाभ पा रहे हैं और वही छत्तीसगढ़ी का विरोध फिर कर रहे हैं। जब छत्तीसगढ़ी भाषा की लड़ाई जीत ली जायेगी तो ये ही लोग भाषा के प्रबल हिमायती और जानकार कहलाते हुए अग्रिम पंक्ति में सीना तान कर खड़े दिखेंगे।
छत्तीसगढ़ी भाषा की लड़ाई जारी है। सत्ता की नजरें भी हर लड़ाके पर है। यह महत्वपूर्ण अवसर है। अपनी अपनी प्रतिबद्धता और योजना है। दीवाने लोग सदा भावात्मक मुद्दों के साथ जुड़कर जीते हैं। इसलिए अधिकांश छत्तीसगढ़ी भाषा की लड़ाई में स्वत: स्फूर्त जुड़ रहे हैं। अब तो सभी जानते-मानते हैं कि छत्तीसगढ़ी से बना है छत्तीसगढ़।
इस राज्य के निर्माण के लिए कभी खूनी लड़ाई नहीं हुई। संस्कृति और भाषा का छत्तीसगढ़ पहले ही बना बनाया रखा था। उसे केवल संवैधानिक स्वीकृति ही तो देना था जो वक्त आने पर दे दिया गया। छत्तीसगढ़ी के कारण जो प्रान्त बना उसमें राज्य निर्माण के साथ ही भाषा की स्वीकृति स्वाभाविक रुप से हो जानी थी, लेकिन यहां भारी चूक हुई। तब लगता था कि राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ के सपूतों की टोली भाषा का मसला चुटकियों में हल कर लेगी। लेकिन वे चुटीली छत्तीसगढ़ी बोल कर वाहवाही भर लूटते रहे। विधान सभा में प्रस्ताव भी पारित हुआ। संविधान के अनुच्छेद ३४५ के अंतर्गत भाषा के लिए प्रस्ताव पारित कर स्वीकृति पर मुहर लगाई जा सकती है, यह उल्लेख विद्वानों ने अपने लेखों में बार-बार है। वे बताते हैं कि अनुच्छेद ३४५ और ३४७ के उपबंधों के अधीन रहते हुए राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा उस राज्य के राजकीय प्रयोजनों में सब या किसी एक या अनेक को या हिन्दी को अंगीकार कर सकेगा।
साफ है कि अनुच्छेद ३४५ के अंतर्गत विधान सभा अपने प्रदेश की भाषा के लिए निर्णय लेने हेतु स्वतंत्र है।
छत्तीसगढ़ी भाषा की समृद्धि से सभी परिचित हैं। छत्तीसगढ़ी के सहारे सभी फल-फूल रहे हैं। शहरों में भी वोट छत्तीसगढ़ी में मांगते हैं। गांव में तो खैर छत्तीसगढ़ी का बोलबाला है ही। ऐसी स्थिति में बहुत दिनों तक छत्तीसगढ़ी का विरोध कर कोई सत्ता में नहीं पहुंच पायेगा। यह तय है कि जिसे भी सत्ता पाना है उसे स्पष्ट रुप से छत्तीसगढ़ी की हिमायत करनी होगी।
छत्तीसगढ़ की अंदरुनी हालत बहुत खराब है जिसे शोध-दृष्टि वाले लोग ही जान पाते हैं। छत्तीसगढ़ रुपी हाथी पर सवार होकर इतराने वाले वैभवशाली लोग तभी तक सुखी हैं जब तक यह हाथी जीवित है। इसे मारने का प्रयास किया जा रहा है। अगर ऐसा हुआ तो सबका सर्वनाश हो जायेगा।
छत्तीसगढ़ी एकता मंच ने इन दिनों एक शोधपूर्ण पर्चा छापा है। इसमें वे बता रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में शासकीय और निजी विश्वविद्यालयों की संख्या ९ है जिसमें एक में छत्तीसगढ़ी व्यक्ति है।
मंडलों, आयोगों की संख्या २३ है जिसमें मात्र छ: में छत्तीसगढ़ी है। १९ जुलाई को छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए रैली निकाली जा रही है। भिन्न भिन्न मंचों के लोग इस रैली की सफलता के लिए काम कर रहे हैं।
यह छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए चल रही लड़ाई बहुत कुछ तय करने जा रही है। आगामी चुनावों तक यह सरगर्मी और तेज होगी। सत्ताकामी लोग अगर दूरगामी योजना को महत्व देंगे तो ये येन-केन-प्रकारेण छत्तीसगढ़ी भाषा की लड़ाई में शामिल होने के लिए सुविधाजनक भूमिका जरुर चुनेंगे। अन्यथा उन्हें बहुत कुछ खोना पड़ेगा। छत्तीसगढ़ियों के पास तो सब कुछ है। भाषा संस्कृति का बल है और गर्वीली गरीबी भी। इसलिए यह लड़ाई भी छत्तीसगढ़ी ही जीतेगा। देर भले लगे मगर जीत सुनिश्चित है।
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Wednesday, November 28, 2007
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