Wednesday, November 28, 2007

जनप्रिय संत पवन दीवान और प्रवचन की क्षेपक कथाएं (1)

माता पार्वती ने जलाई लंका -

संभवत: छत्तीसगढ़ी में प्रवचन की ऐसी बेसुध कर देने वाली अद्भुत शैली संत श्री पवन दीवान के पहले किसी से नहीं सधी। पवन दीवान संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में एम.ए. हैं। वे राजनेता भी हैं। मंत्री भी रह चुके हैं। सांसद भी। वे छत्तीसगढ़ के अकेले नेता हैं जिनकी कुर्सी सत्ता परिवर्तन के बावजूद इंर्च भर नहीं हिली। वे कांग्रेस काल में भी गो-सेवा आयोग के अध्यक्ष थे, आज भी हैं। मैंने उन्हें लगभग ३५ वर्षों से लगातार लोकप्रियता के शिखर को छूते पाया। उनके व्यक्तित्व में छत्तीसगढ़ी और गैरछत्तीसगढ़ी सभी लोगों को बांधने का सम्मोहक गुण है, जो छत्तीसगढ़ को नहीं जानते और छत्तीसगढ़ी नहीं बोल पाते वे भी उन्हें भरपूर सम्मान देते हैं। उनके मुख मंडल के तेज पर भी कई जानकारों ने समय समय पर रोशनी डालने का प्रयत्न किया है। पिछले दिनों मल्हार में डिड़िनेश्वरी देवी के मंदिर परिसर में उनका प्रवचन हुआ। श्री पवन दीवान एक सिद्ध प्रवचनकर्ता हैं। जब तक सामान्य जन के बीच के व्यक्ति बने रहते है तब तक हा-हा, ही-ही करते हुए सबके बीच के व्यक्ति बने रहते हैं। लेकिन व्यास गद्दी पर जाते ही रुपांतरित होते मैंने सैकड़ो अवसरों पर देखा है। वे मंगलाचरण शुरु करते हैं और कौरव पाण्डव सेना के बीच अर्जुन को गीता सुनाते खड़े श्रीकृष्ण के वे चित्र मेरी आंखों के आगे नाचने लगते हैं जिन्हें मैंने महाभारत या अन्य ग्रंथों में देखा है। श्री पवन दीवान के भक्तगण ठीक ही कहते हैं कि वे ढंग की राजनीति करते तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री होते। भक्तों के भोलेपन पर दीवान जी अट्टहास कर उठते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान पर चोट की कथा सुनकर वे रोष से भर उठते हैं। ऐसी किसी शिकायत पर वे परसुरामी मुद्रा में जो कुछ कहते हैं उससे मानस की पंक्तियां याद हो आती है -

सुनु सुग्रीव मारिहऊं, बालिहि एकहि बान,
ब्रहम रुद्र सरनागत, गए न उबरहिं प्रान।

श्री पवन दीवान जब भागवत प्रवचन के मंच से उतरते हैं तो आज भी हजारों लोग उनके पांवों को छू लेने की स्पर्धा में धक्का-मुक्की करते हैं। पिछले दिनों मल्हार में भी यही हुआ। और क्यों न हो, वे प्रवचन में क्षेपक कथा ही कुछ इस तरह सुनाते हैं कि लगातार उन्हें सुनते हुए श्रोता अधाता ही नहीं । उनके द्वारा प्रस्तुत क्षेपक कथाएं एक जगह संग्रहित हो सके इस प्रयास में मैं प्राय: उनके प्रवचनों को समय निकालकर सुनता हूं।

सीमाओं के भीतर रामायण, महाभारत की बेहद रोचक क्षेपक कथाएं हैं जिनका संकलन जरुरी है। पिछले दिनों मल्हार में श्री पवन दीवान ने एक ऐसी कथा से लोगों को बांधा जिसे किसी ने पहले नहीं सुना था। वह क्षेपक रंजक कथा इस तरह है -

माता पार्वती भगवान शंकर की अर्धांगनी बनकर हिमालय आ तो गई मगर घर द्वार न पाकर अकबका गई। भोले शंकर अपने में मगन। उनके चेले भी उन्हीं की तरह विरागी। अचानक कुबेर माता के दर्शन के लिए आये। उसने आग्रह किया कि कुछ आज्ञा दीजिए। माता ने कहा कि घर बना दो। पहाड़ में पड़े हैं, घर नहीं है पुत्र। कुबेर ने सोने का भव्य महल बना दिया।

पार्वती जी ने भगवान शिव को पुलकते हुए महल दिखाया तो उन्होंने कहा, किसी महापंडित से पूजा करवाओ तब गृह प्रवेश होगा। महापंडित तो रावण ही था। रावण की पूजा अर्चना के बाद भगवान शिव ने दक्षिणा मांगने का आग्रह किया। रावण ने कहा कि रहने दीजिए आप मेरे आराध्य हैं।
भगवान शंकर ने कहा - अभी आप पंडित के रुप में सम्मान योग्य हैं, मांगिये दक्षिणा। रावण ने कहा- अगर देना ही है तो इसी स्वर्ण महल को दे दीजिए। भगवान शिव ने महल दे दिया। फिर शंकर भगवान ने कहा कि भुरसी दक्षिणा भी मांगो।

रावण ने कहा कि पार्वती को दे दो। भगवान शिव ने उसे निराश नहीं किया। अब एक कंधे पर स्वर्ण महल दूसरे में माँ जगदम्बा। पार्वती जी रोने लगी। रोते हुए उन्होंने विष्णु भगवान को पुकारा। वे बालक रुप लेकर आये। उन्होंने रावण से पूछा कि महल तो ठीक है, मगर यह दूसरे कंधे पर कौन है ?
रावण ने कहा पार्वती है। बालक रुपी विष्णु ने कहा कि मैं अभी पाताल लोक से आ रहा हूं। पार्वती जी तो वहां है। यह तो दासी है जिसे तुम्हारे जैसा महापंडित कंधे पर उठाये घूम रहा है। रावण ने तुरंत पार्वती जी को कंधे से उतार दिया और कहा, भाग जाओ। अब जाकर पार्वती जी की जान में जान आई। उन्होंने वहीं संकल्प लिया कि अरे दसमुड़िया, एक दिन तोर महल ला जरोहूं रे, लेगत हस रे। (अरे दसमुख, एक दिन तुम्हारे महल को जलाऊंगी। लेजा रहा है) उनका यह प्रण तब पूरा हुआ जब त्रेता में रामावतार हुआ। भगवान शंकर ने पार्वती से कहा कि रामावतार हो गया है। मैं हनुमान बनकर लीला में भागीदार बनूंगा। श्रीराम की सेवा करुंगा।

माता पार्वती ने कहा कि मैं भी चलूंगी। शंकर भगवान ने कहा कि पार्वती, मुझे लसरंग लसरंग कूदना फांदना हे, सेवा करना है। तुम कहां जा सकोगी। पार्वती जी ने कहा - नहीं ले जा सकते तो ब्याह कर क्यों लाये। इस तर्क पर शंकर जी परास्त हो गए। तब माता पार्वती ने कहा - तुम्हें अड़चन नहीं होगी। हर बंदर की पूंछ होती है, तुम बिना पूंछ के बदर बनोगे क्या ?

शंकर भगवान ने कहा - पार्वती, पूंछ तो सबको अच्छी लगती है। किसी की बड़ी पूंछ होती है, किसी की छोटी, लेकिन भई पूंछ तो जरुरी है। तब पार्वती मैया ने कहा - मैं तुम्हारी पूंछ बनूंगी। पूंछ का निचला हिस्सा बनकर रहूंगी। तुलसीदास ने इसीलिए संकेत किया है - कपि के ममता पूंछ पर। मतलब साफ है, ममता अर्थात पार्वती माता। वह पूंछ पर बैठी है। पूंछ बनकर बैठी है। माता की जिस पर कृपा होती है, उसी की पूंछ भी होती है।

इसीलिए जब सोने की लंका जली तब पूंछ में चिंदियां बांधी गई। माता ने विराट रुप धर लिया। चिंदियों का टोटा हो गया। लेकिन वे फिर सामान्य आकार में आ गई और इस तरह रावण का वह महल जल गया जिसे दक्षिणा में उसने भगवान शंकर ने मांग लिया था।

बोल सियाबर रामचंद्र की जय।

डॉ. परदेशीराम वर्मा

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