आलेख -
छत्तीसगढ़ में भांजों का चरण स्पर्श किया जाता है। चूंकि भगवान श्रीराम छत्तीसगढ़ के भांजे हैं इसलिए यहां के हर भांजे को अर्पित प्रणाम श्रीराम तक पहुंचता है। संसार भर में एक स्थान पर माता कौशल्या का मंदिर है। वह है चंदखुरी ग्राम में। यह गांव छत्तीसगढ़ के यशस्वी नेता और रायपुर के सांसद श्री रमेश बैस के पुरखों का मालगुजारी गांव है। चंदखुरी इन दिनों चर्चा में है। माता कौशल्या और भगवान श्रीराम को हर सांस में बसाकर कथा-भागवत बांचने वाले संत कवि पवन दीवान पर केन्द्रित अंक में चंदखुदी ग्राम के श्री रमेश बैस सांसद एवं पूर्व मंत्री, पर यह आलेख प्रस्तुत है।
सज्जाहीन पवित्र आदिवासी घरों की तरह निष्कपट श्री रमेश बैस
छत्तीसगढ़ में बाहर से आने वाले लोगों में से अधिकांश यहां की संस्कृति और भाषा के मर्म को समझने का कष्ट नहीं उठाते। बाज वक्त शब्दों का उपहासपूर्ण उपयोग वे करते हैं। ऐसा ही एक शब्द है दाऊ । दाऊ बड़ी जमीन के जोतनदार, भूतपूर्व मालगुजार या सम्पन्न किसान को कहा जाता है। मगर आज शहरों में यह शब्द गैर छत्तीसगढ़ी लोगों द्वारा कुछ इस तरह से उपयोग किया जाता है कि कोफ्त होती है। असल में छत्तीसगढ़ के प्रति अपनी घृणा के प्रदर्शन के लिए वे ऐसा प्रयास करते हैं। वे गली गली काम के लिए घूमते मजदूर को, दूध बेचने वाले ग्वाले को, सब्जी की टोकरी लेकर फेरी लगाने वाले कुंजड़े को और राह चलते भिखारी को कहते हैं - अबे ओ दाऊ तनिक सुनो तो । इस उपालंभ को सुनकर दुख तो होता है मगर कहने वालों की मजबूरी देखकर हंसी भी आती है। न चाहकर भी उन्हें छत्तीसगढ़ी रंग में रंगना पड़ रहा है। यह उगलत निगलत पीर घनेरी जैसी अत्यंक दुखद स्थिति है।
छत्तीसगढ़ विलक्षण प्रांत है। यहां पिछड़ी, दलित जातियों से ही अधिकतर मालगुजार रहे। इस अनोखे प्रांत में दलित शब्द का अर्थ भी बदल जाता है। देश में कहीं भी अनुसूचित जाति के लोग अगर मालगुजार रहे तो केवल छत्तीसगढ़ में। इस जानकारी से गैर छत्तीसगढ़ी प्रबुद्ध वर्ग चकित रह जाता है। यह मेल मिलाप की धरती है। छत्तीसगढ़ में ही नहीं पूरे देश में कूर्मि जाति खेतिहर जाति है। विशुद्ध खेतिहर। अन्य पिछड़ी जातियों के साथ दीगर व्यवसाय भी सन्नद्ध रहता आया है। उनकी जाति नाम में व्यवसाय का विवरण भी रहता है।
कूर्मि किसानी के लिए जाना जाता है। यह भूमि के लिए समर्पित जाति है। इसीलिए छत्तीसगढ़ में प्राय: कूर्मियों को बाहरी लोग भी पूरे आत्मविश्वास से दाऊ जी कह लेते हैं। सद्भावना से भरे लोग कूर्मियों को दाऊ जी कहते हुए आश्वस्त रहते हैं कि सामने वाले के पास आज भले एकड़ दो एकड़ जमीन हो मगर इसके पुरखे जरुर जमीन वाले रहे होंगे। कूर्मि भी अपने लिए दाऊ सम्बोधन सुनकर अपने पुरखों पर गर्वित होता है। आज उनके हाथ से जमीन निकली जा रही है लेकिन हर कूर्मि की तीन चार पीढ़ी पहले की कथा में लंबी चौड़ी खेती का विवरण भी दर्ज रहता है।
कुछ कूर्मि तो दाऊओं के दाऊ कहलाने की हैसियत रखते थे। ऐसे ही बड़े मालगुजार थे स्व. मोतीलाल जी बैस। वे रायपुर के सांसद पूर्व मंत्री श्री रमेश बैस के दादा जी थे। श्री मोतीलाल जी बैस के चार बेटों में से प्यारेलाल बैस ने उनकी मालगुजारी को सम्हाला। दस गांव की बड़ी मालगुजारी को सम्हालने में बोधीलाल बैस एवं लालजी बैस ने भी उन्हें भरपूर सहयोग दिया। रायपुर में बांड़ा लेकर बच्चों की पढ़ाई के लिए खोमलाल जी बैस शहर आ गये। बच्चों के भविष्य के लिए गांव छोड़कर आना एक बड़ा निर्णय था। मगर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। खोमलाल जी बैस के सुपुत्र श्री रमेश बैस ही आज चार बार सांसद बनने का कीर्तिमान रच सके हैं।
मोतीलाल बैस के चार सुपुत्रों में गोढ़ी गांव में रहने वाले बोधीलाल बैस को संगीत से गहरा लगाव था। श्री रमेश बैस भी अगर राजनीति में न आते तो एक चर्चित काष्ट कलाकार, बागवानी विशेषज्ञ और चित्रकार होते। इस परिवार में संगीत और कला के प्रति गहरा रुझान भी रहा। छत्तीसगढ़ के दाऊओं ने लोक कला और लोक संगीत के क्षेत्र में वंदनीय काम किया है। दस गांव के मालगुजार मोतीराम जी बैस के ये गांव थे - माता कौशल्या के मंदिर से गौरवान्वित सौ तालाबों वाला गांव चंदखुरी, गोढ़ी, पिपरहट्टा, बकतरा, देवरी, कुर्रा, सिहाद, पंडरवानी, सेमरा और चीचा। इन दस गांवों के अतिरिक्त एक गांव करही में भी बाद में जमीन खरीदी गई। इस तरह कुल ग्यारह गांव थे। दाऊ मोतीलाल बैस के चार पुत्रों में एक दाऊ खोमलाल बैस रायपुर आ गये। परिवार भर के बच्चों का रायपुर वाला बैस बांड़ा गुरुकुल था। सब यहीं आकर पढ़े-बढ़े।
खोमलाल जी के सात पुत्रों में श्री रमेश बैस पांचवें हैं। दो पुत्रियां श्रीमती रामबाई एवं श्रीमती शांति बाई है। अन्य छ: पुत्र हैं - खेलन सिंह बैस, नरसिंह बैस, डॉ. रामजी बैस, श्यामलाल बैस, महेश बैस एवं नरेश बैस। उनमें डॉ. रामजी बैस ने नागपुर से बी.एस.सी., एम.बी.बी.एस. किया। वे सफल चिकित्सक एवं आर.एस.एस. के समर्पित सिपाही थे। नागपुर में अध्ययन के दौरान ही गुरु गोलवलकर जी से भी वे प्रेरणा प्राप्त् करते रहे। डॉ. रामजी बैस आपातकाल में १८ माह के लिए जेल भी गए। वे रायपुर नगर आर.एस.एस. के कार्यवाहक थे। डॉ. रामजी बैस सहित सभी बच्चों को छुटपन से ही आर.एस.एस. से गहरा संस्कार मिला। सभी आर.एस.एस. के कार्यकर्ता रहे।
श्री श्यामलाल बैस ३०.१०.२००४ से आर.डी.ए. के अध्यक्ष हैं। उसके पहले लगातार ......................
दीवान जी भी एक बार विधायक, म.प्र. में मंत्री फिर कई बार सांसद रहे। रमेश बैस भी प्रारंभ में विधायक रहे और फिर चार बार सांसद का चुनाव उन्होंने जीता। १९७८ में रायपुर के ब्राम्हण पारा से वार्ड में पार्षद बने। छत्तीसगढ़ में पार्षद से राजनीति में यात्रा शुरु करने वाले तीन व्यक्ति बहुत दूर तक गए । श्री मोतीलाल वोरा और श्री रमेश बैस दो ऐसे ही राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने वार्ड मेम्बरी से यात्रा प्रारंभ की। तीसरे व्यक्ति छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह जी हैं। इन्होंने भी वार्ड मेम्बरी से राजनीतिक यात्रा शुरु की।
१९८० में रमेश बैस मंदिर हसौद से श्री नरेन्द्र तिवारी को हराकर विधायक बने। १९८५ में श्री केयूर भूषण से हारे मगर १९८९-९० में श्री केयूर भूषण को हराकर दिल्ली गए। १९९४-९६ तक वे मध्यप्रदेश जनता पार्टी के उपाध्यक्ष भी रहे। १९९६-९८ में वे पुन: जीते। १९९८-९९ में उद्योग एवं खान मंत्री तथा १९९९ में रसायन एवं उर्वरक मंत्री रहे। २००० में राज्य मंत्री, सूचना एवं प्रसारण के पद पर पहुंचे। २००३ फरवरी में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री बने।
श्री रमेश बैस तथा श्री श्याम बैस ने पारंपरिक कृषि कार्य के अतिरिक्त व्यापार के क्षेत्र में भी आने का प्रयास किया। श्री श्याम बैस ट्रेक्टर पार्ट तथा मेनन डीजल इंजिन के डीलर थे। उनकी दुकान मोदहा पारा में थी। श्री रमेश बैस डी.एम.सी., कुम्हारी से उत्पादित जहाज छाप सुपर फास्फेट की एजेंसी लेकर काफी दिनों तक उस काम में लगे रहे।
सात भाइयों में खेलनसिंह बैस, डॉ. रामजी बैस तथा नरेश बैस अब नहीं रहे। नरसिंह बैस ही खेती आदि का काम सम्हालते हैं। श्यामलाल बैस और महेश बैस रायपुर में रहकर श्री रमेश बैस की राजनीतिक यात्रा में साथ साथ चलते हुए आगे बढ़ रहे हैं।
श्री रमेश बैस को मंत्री के रुप में बेहद महत्वपूर्ण पारी खेलने का अवसर लगा। वैसे भी उन्हें भाग्यशाली व्यक्ति माना जाता है। आज जबकि राजनीति में आक्रामकता, बड़बोलापन, हिंसा और प्रदर्शन को सफलता के लिए आवश्यक गुण की तरह स्वीकारने की प्रवृत्ति बढ़ रही है तब श्री रमेश बैस पूरी सादगी के साथ राजनीति करते हुए विजेता की छबि के साथ राजनैतिक परिदृश्य में उपस्थित हैं। लोगों को लगातार विजय का कारण जब साफ साफ समझ में नहीं आता तब उनके मुंह से बेशाख्ता यही फतवा निकल पड़ता है कि वे मुकद्दर के सिकंदर हैं और वर्तमान जो स्थिति है उससे लगता है कि यह उनकी सिकंदरी छबि बहुत लंबे समय तक बनी रहेगी। जितने दिग्गज से दिखने वाले प्रतिद्वंद्वी आसपास हैं उन्हें तो वे हरा चुके हैं।
कई बार उनके समर्थकों ने हवा बांधने का प्रयास भी किया कि वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं, मगर वे अपने में मस्त जोड़-तोड़ से दूर अपनी रुचि के कामों में लगे रहे। वे आर.एस.एस. के छुटपन से जुड़ गये थे इसलिए पदों पर पहुंचने के लिए उन्होंने कभी भी चलताऊ हथकंडों का इस्तेमाल नहीं किया। बल्कि पद खुद उनके पास आया। वे पद के प्रभाव और प्रभाव के पद संबंधी झंझटों से सदा दूर रहे।
उनके समर्थकों का समृद्ध संसार है, प्रशंसकों की भरी पूरी दुनिया उनके पास है, मगर अंतरंग मित्र गिने चुने हैं। विरोध और समर्थन के प्रदर्शन में रमेश बैस कभी संयम का दामन नहीं छोड़ते। वे न शीघ्र किसी से प्रभावित होते हैं, न ही दूसरों को प्रभावित करने की चेष्टा करते हैं। औरों के संबंध में छिद्रान्वेषण उन्हें कभी सुहाता नहीं, इसीलिए अपने बारे में की गई बारीक कताई को भी वे सराह नहीं पाते।
रमेश बैस की यह साधना उन्हें अलग व्यक्तित्व प्रदान करती है। वे जानते हैं कि लोग अति-प्रचार से भी बिदकते हैं और प्रचार-शून्यता से भी नाराज होते हैं। बड़े बड़े प्रचारप्रिय सूरमाआें को धूल चाटते वे देख चुके हैं। छ: सात बार के चुनावी महासमर में वे लटके-झटकों की नाकामयाबी देखते रहे हैं। वे दोनों तरह की अतियों से बचकर चलते हैं मगर जमाना आज भी घोड़े पर सवार बाप बेटे की प्रसिद्ध कहानी में आये खुराफाती लोगों की तरह ही है। कहानी में बाप को घोड़े पर बैठा देख लोग नाराज होते हैं। बेटा बैठता है तो खुश नहीं होते। दोनों ही नहीं बैठते तो भी लोग प्रश्न उठा देते हैं। उपहास और आपत्ति से तंग आकर बाप बेटे घोड़े को ही लादने का प्रयास करते हैं और पुल से गुजरते समय नदीं में गिर पड़ते हैं।
इसलिए श्री रमेश बैस इस कहानी का संदेश समझते हैं। वे लोगों की नसीहतों पर बहुत ध्यान नहीं देते। तटस्थ रहकर इस शेर का मर्म समझना चाहते हैं।
हमारी खाकसारी पर भी दुनिया खुश नहीं होती,
गुबारे राह बनाते हैं तो आंखों में खटकते हैं।
श्री रमेश बैस अपनी कामयाबी भरे दिनों में स्व. पिता को याद करते हैं। पिता अपने इस पुत्र की सफलता देखने से पहले चले गए। पिता को यह लगता था कि रमेश बैस संभवत: जीवन में सफलता का स्वाद नहीं चख पायेंगे। जबकि वे जीत और सफलता के पर्याय बनकर रह गये हैं। पिता की याद इसीलिए आती है।
प्रमोद महाजन ने कहा था कि मंत्री हो तो बैस जैसा। ३२० वनग्रामों को जब उन्होंने राजस्व ग्राम का दर्जा दिलवाया तब यह प्रशंसात्मक टिप्पणी उन्हें मिली। रायपुर दूरदर्शन के विस्तार के लिए आयोजित कार्यक्रम में सुषमा स्वराज ने प्रफुल्लित होकर कहा था कि रमेश बैस जी के पास मुख्तियारनामा है। छत्तीसगढ़ का जैसा श्रृंगार वे चाहें करें। छत्तीसगढ़ के विकास के लिए सतत उनकी सोच से परिचित सुषमा जी ने यह कहकर रमेश बैस की कार्यशैली को भी उद्घाटित कर दिया था। चुप रहकर परिणामपरक काम करने वाले रमेश बैस श्री अटलबिहारी बाजपेयी, आडवानी जी एवं सुषमा जी से प्रभावित हैं। वे समय समय पर इनके व्यक्तित्व की खूबियों के बारे में कहते भी हैं।
कम बोलने वाले लोग प्राय: सौ सुनार की एक लुहार की वाला ढंग अपनाते हैं। पिछले दिनों रमेश बैस ने कहा कि यह हल्ला मचाया जाता है कि श्यामाचरण शुक्ल ने राजिम क्षेत्र में बहुत विकास किया। नहरों का जाल बिछवा दिया। अगर ऐसा है तो अमितेश शुक्ल एक भाजपा कार्यकर्ता चंदूलाल साहू से क्यों हार गए।
अपने काम के दम पर रायपुर जैसे महत्वपूर्ण लोकसभा सीट पर निश्चिंत होकर चुनाव समर में हर बार उतरने वाले रमेश बैस अब साठ पूरे कर रहे हैं। स्वतंत्रता के ठीक १३ दिन पहले वे जन्मे। १३ का आंकड़ा कालान्तर में भाजपा के लिए भी लाभप्रद और यादगार सिद्ध हुआ है। वे देश विदेश का भ्रमण कर चुके हैं। कई बार देश के मंत्री भी रह चुके। मगर आज भी उनका आचरण आम छत्तीसगढ़ी व्यक्ति की तरह नितांत सरल और आडंबरहीन है। उन्हें कभी प्रभाव जमाने की जुगत लगानी नहीं पड़ी बल्कि हमेशा यह चिंता रही कि प्रभाव के अतिरेक पर नकेल किस तरह डाला जाय। सजावट के बगैर भी आदिवासी गांवों के घर लिपे पुते, पवित्र और सुन्दर दिखते हैं। इन गांवों के ऐसे ही घरों की तरह हैं हमारे निष्कपट रमेश बैस जी।
- डॉ परदेशीराम वर्मा
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Wednesday, November 28, 2007
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