Tuesday, April 8, 2008

दुनिया अठवारी बजार के कवि डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा (4)

- डॉ. सत्यभामा आड़िल

मनुष्य यदि सर्जक या रचनाकार है, तो उसकी सर्जना या रचना से उसके संपूर्ण जीवन का दृष्टिकोण चिंतन और व्यक्तित्व जाना जा सकता है डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा अट्टहासों के बीच, संसार से निस्पृहता भी रखते थे, यह जानकारी बहुत कम लोगों को हैं उनके साथ के लोगों ने, उन्हें बहुत जिन्दादिल, कहकहे लगाने वाले और मस्ती में झूमकर गाने वाले कवि के रूप में ही देखा है पर, मन की गहराई में छिपी-दबी वितृष्णा सामने नहीं पाती थी

नवंबर १९३९ से सितंबर १९७९ को बीच केवल चालीस वर्ष में, अपनी सृजनधर्मिता दिखाने वाले डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, वस्तुत: छत्तीसगढ़ी भाषा-अस्मिता की पहचान बनाने वाले गंभीर कवि थे हिन्दी साहित्य के गहन अध्येता होने के साथ ही, कुशल वक्ता, गंभीर प्राध्यापक, भाषाविद् तथा संगीत मर्मज्ञ गायक भी थे उनके बड़े भाई ब्रम्हलीन स्वामी आत्मानंद जी का प्रभाव उनके जीवन पर बहुत अधिक पड़ा था स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं दीर्घायु प्राप्त यशस्वी शिक्षक पिता स्व. धनीराम वर्मा के पाँच यशस्वी पुत्रों में डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा एकमात्र विवाहित और गृहस्थ थे तीन पुत्र रामकृष्ण मिशन में समर्पित सन्यासी एवं एक पुत्र अविवाहित रहकर पं. रविशंकर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक है तथा स्वामी आत्मानंद जी के ‘स्वप्न केन्द्र’ विवेकानंद विद्यापीठ के संचालक है इस प्रकार डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का जीवन विवेकानंद भावधारा से अनुप्राणित उत्तम संस्कारों का जीवन था - जहाँ छत्तीसगढ़ी संस्कृति की लोक भावधारा भी कल-कल निनाद करती हुई बहती थी

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के जीवन का दूसरा पक्ष लोककला से इस तरह जुड़ा था कि छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के यशस्वी और अमर प्रस्तोता स्व. महासिंह चंद्राकर के रात भर चलने वाले लोकनाट्य ‘सोनहा बिहान’ के प्रभावशाली उद्घोषक हुआ करते थे उनका स्वर, श्रोताओं और दर्शकों को अपने सम्मोहन में बांध लेता था जब वह स्वर अकस्मात् बंद हुआ तो, उन्हीं की पंक्ति आकाश धरती पर मानों गूँजने लगी

‘न जमो हर लेवना के उफान रे टलन जाही

दुनिया अठवारी बजार रे, उसल जाही ।।‘

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा छत्तीसगढ़ी भाषा की अस्मिता के प्रतीक थे उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा एव व्याकरण का ग्रंथ लिखा - छत्तीसगढ़ी का उद्विकास छत्तीसगढ़ी अनेकों छत्तीसगढ़ी कहानियाँ कथाकथन शैली में प्रकाशित हुइंर् (सन् १९६२ से ६५ के बीच) हिन्दी में ३सुबह की तलाश४ उपन्यास , ‘अपूर्वा’ काव्य संकलन प्रकाशित हुआ उन्होंने कुछ पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया - मोंगरा, श्री मां की वाणी, श्री कृष्ण की वाणी, श्री राम की वाणी, बुद्ध की वाणी, ईसा मसीह की वाणी, मोहम्मद पैंगबर की वाणी

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने यद्यपि गृहस्थ जीवन व्यतीत किया, फिर भी उनके अंतस् में विवेकानंद भाव धारा एवं रामकृष्ण मिशन का गहन प्रभाव था, यही कारण है कि दर्शन की गहराइयों में डूबकर काव्य-सृजन किया करते थे ३छत्तीसगढ़ महिमा४ कविता में छत्तीसगढ़ का समूचा भौगोलिक परिदृश्य आँखों में झूलने लगता है -

‘सतपूड़ा सेंदूर लगावय

दंडकारन, महउर रचावय ।।

मेकर डोंगर करधन सोहय

सुर मुनि जन सबके मन मोहय ।।

रामगिरि के सुपार पहड़िया

कालिदास के हावय कुटिया ।।

लहुकत लगत असाढ़ बिजुरिया

बादर छावय घंडरा करिया

परदेशी ला सुधे देवावय

घर कोती मन ला चुचुवावय ।।

भेजय बादर करा संदेसा

झन कर बपुरी अबड़ कलेसा ।।

बारा महिना जमे पहाड़ी

नवा असाढ़ लहुट के आही

मेघदूत के धाम हे, इही रमाएन गांव

अइसन पबरित भूम के, छत्तीसगढ़ हे नांव ।।‘

उक्त लंबी कविता में महानदी, इन्द्रावती, पैरी, शिवनाथ, हसदो, अरपो, जोंक नदियों के साथ-साथ सिहावा पर्वत बस्तर के मुड़िया माड़िया इन सबका मोहक और विस्तृत वर्णन भी है उनके ह्रदय में छत्तीसगढ़ के प्रति अपार प्रेम का सागर लहराता है शब्दों की उताल तंरगे उठती थी मातृभूपि के प्रति प्रेम की लहर फिर दर्शन की गुफा में लौटने लगती और वे अंदर से दार्शनिक की तरह गंभीर स्वर में फिर गाने लगते, मानों फकीर बंजारा धरती पर, खुले आकाश में घूम रहा हौ और संसार के कर्म व्यापार को देखकर चेतावानी दे रहा हो -

दुनिया हर रेती के महाल रे, ओदर जाही

दुनिया अठवारी बजार रे, उसल जाही ।।

आनी बानी के हावय खेलवना, खेलय जम्मो खेल

रकम रकम के बिंदिया फुंदरा, नून बिसा लव तेल

दुनिया हर धुंगिया के पहार रे, उझर जाही

दुनिया अठवारी बजार रे, उसल जाही ।।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा को स्मरण करना, छत्तीसगढ़ी भाषा की पुख्ता नींव को स्मरण करना है वे छत्तीसगढ़ी लोककला के प्रेमी, लोक संस्कृति के गायक और छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य की परंपरा को समृद्ध करने वाले महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे

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