Tuesday, April 8, 2008

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का विशिष्ट लेख (5)

नेहरू की सामासिकता

पंड़ित जवाहर लाल नेहरू भारतीय संस्कृति की उस सामाजिक भावना के आधुनिक पुरोधा महापुरूष हैं, जिसकी परम्परा प्राग्वैदिक काल से आज तक युगानुकूल संशोधनों और परिमार्जनों के साथ चली आई है जब जीवन का प्रवाह अवरूद्ध हो जाता है, जब संस्कृति के विकासमान क्षितिज पर सक्रांति के काले-काले बादल छा जाते है, तब हमारी जीवन धारा अलक्ष्य लक्ष्य की ओर प्रवाहित होना बंद कर देती है और एक संकीर्ण सीमा में रूक जाती है इसी प्रकार जब किसी राष्ट्र के जीवन में संक्रांति के क्षण उपस्थित होते हैं तब सांस्कृतिक मूल्यों में गड़बड़ी होने लगती है और हमारी जीवन प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाती है तब जीवन में अंधकार छा जाता है, जब सांस्कृतिक चेतना विजड़ित सी प्रतीत होती है तभी इस अंधकार को चीरते हुए, विरोधों का परिहार करते हुए और विपर्यस्त वस्तुओं में समन्वय का सूत्र पिरोते हुए एक आलोक किरण का आस्फालन होता है यह एक महापुरूष होता है, जो हमारे विपर्यस्त सांस्कृतिक मूल्यों का पुनर्योजन करता है, हमारी जीवन प्रणाली के गतिरोध का निराकरण करता है और उसे अधिक प्रशस्त भूमिका प्रदान करता है

भारत का सुदीर्घ इतिहास ऐसे महापुरूषों के आगमन और प्रयोजन की कहानियों से भरा हुआ है जहां अध्यात्म के क्षेत्र में महतर प्रतिमा संपन्न आत्मवेता ऋषियों का आगमन होता है, वहीं भौतिकता के क्षेत्र में राष्ट्रीय जीवन को पुर्नसंयोजित एवं संगठित करने के लिए राष्ट्र के श्रेयस एवं अभ्युदय के पक्ष में तालमेल बैठाते हैं और राष्ट्रीय जीवन को समग्र और पूर्ण बनाते है आधुनिक युग के पूर्वार्द्ध में सांस्कृतिक संक्रांति का निराकरण करने के लिए एक से एक महापुरूषों का भारत में अवतरण होता है श्री राम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय भारत की आध्यात्मिक चेतना को जगाते है और उन्हें एक समृद्धतर जीवन की प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित करते हैं इसी प्रकार राष्ट्रीय और राजनीतिक एकता तथा स्वतंत्रतम की उपलब्धि के लिए बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू जैसे नररत्नों का आगमन होता है महापुरूषों की एक पवित्र राष्ट्र के कर्ण गुहारों में मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वतंत्रता का शंख फूंकती है तो उनकी दूसरी पंक्ति औपनिवेशिक एवं राजनीतिक स्वातंत्र्य की चेतना को जनमत में प्रसारित करती है पहला वर्ग यदि राष्ट्र की आत्मा के रूप में धर्म को नवीन जीवन संदर्भो में अनूदित करके प्रतिष्ठित करता है तो दूसरा वर्ग राष्ट्र शरीर को ही सबल और पुष्ट बनाने का प्रयास करती है

जवाहर लाल नेहरू राष्ट्र निर्माता पुरूषों के उपवन के ताजे और सबसे अधिक महकते हुए फूल हैं उनकी सुगंध शताब्दियों तक अक्षत रहेगी उन्होंने राष्ट्रीय भूमिका पर तो कार्य किया ही है, किन्तु इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय शांति के क्षेत्र में पर्याप्त योगदान दिया है आधुनिक राजनीतिक वादों के विरोध को दूर करके उनमें एक सामान्य ेश्य की प्रतिष्ठा करना आज की एक महान आवश्यकता थी नेहरूजी के कृतित्व से इस आवश्यकता की एक बड़ी सीमा तक पूर्ति हुई है

जब नेहरू जी ने अपने कार्यक्षेत्र में पर्दापण किया था तब उन्हें उत्तराधिकारी के रूप में विरोधाभास ही मिले थे राजनीति के क्षेत्र में यह विरोधाभास उनके सामने पूंजीवाद और साम्यवाद के रूप में सामने आया था उन्होंने समाजवाद को हमारे राष्ट्रीय जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन के रूप में ग्रहण नहीं किया उन्होंने यह जान लिया था कि इन दोनों साधनों में अतिवादी प्रवृत्तियां निहित हंै और इनमें से किसी एक को स्वीकार करना राष्ट्र के राजनीतिक स्वरूप को एकांगी बना देना है भगवान बुद्ध की तरह उन्होंने भी इन दोनों विधियों के अतिवादों के बीच एक मध्यम मार्ग की अवधारणा की, जिसमें यद्यपि पूंजीवादी और साम्यवाद के उत्कृष्ट तत्व सन्निहित है किन्तु वहां उनके दोषों का सर्वथा अभाव है

इस मध्यम मार्ग का उन्होंने कोई नाम नहीं दिया था किन्तु यह नेहरूवाद नहीं है यह तो प्रजातांत्रिक विकास के माध्यम से समाजवाद की स्थापना का एक समन्वित प्रयास है जब दो विरोधी तत्वों का संगठन किया जाता है तब उसमें सदैव सफलता ही नहीं मिलती, विफलता भी मिलती है तब हमेशा प्रशंसा ही नहीं मिलती, आलोचना भी सुननी पड़ती है नेहरू इन प्रतिक्रियाओं से अवगत थे किन्तु उनमें गजब का आत्मविश्वास था - ऐसा दृढ़ आत्मविश्वास उनमें था जो झंझाओं और चक्रवातों के विचलित कर देने वाले आघातों को सहता हुआ भी नगराज हिमालय की तरह अविचलित और अकम्प बना रहता है उन्होंने अपने इस प्रयास में अपने वक्ष पर साम्यवादी और पूंजीवाद के द्धिविध शिविरों से छोड़े गये आलोचनाओं के बाणों को झेला था पूंजीवादियों ने उन्हें प्रच्छन्न सामा्रज्यवादी बताया और साम्यवादी नारेबाजों ने उन्हें पूंजीवादी गुर्गा कहा किन्तु वे सब कुछ सह गए और सहते हुए भी निष्कम्प ज्योति की तरह संसार को उनके सामने राष्ट्रीय विकास को नियोजित करने की समस्या थी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संबंध में उन्हें उत्तराधिकार के रूप में विरोधाभास ही मिले थे एक ओर महात्मा गांधी द्वारा प्रवर्तित योजना थी जो केवल कुटीर एवं ग्रामीण उद्योगों पर आश्रित थी तो दूसरी ओर पश्चिम के संपन्न देशों ने औद्यागीकरण के चमत्कार के चलचित्र भी उन्हें दिखाये थे इन द्विविध आर्थिक नियोजन की प्रणालियों के बीच चयन की समस्या बड़ी जटिल थी यदि वे गाँधीवादी अर्थव्यवस्था को स्वीकार कर लेते और देश में कुटीर उद्योगों का जाल बिछा देते तो इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वे शताब्दियों तक गांधीवादी अर्थव्यवस्था के प्रतिष्ठापक माने जाते किन्तु पश्चिम के औद्योगिकरण की बाढ़ में तब हमारा देश पिछड़ जाता यहाँ भी उनकी सामाजिक नैया ने अपना चमत्कार दिखाया और वे महात्मा गांधी की अर्थव्यवस्था को लांघकर राष्ट्र के औद्योगीकरण के लिए भागीरथ प्रयत्न करते रहे किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे गांधीवादी अर्थव्यवस्था का सर्वथा तिरस्कार कर देते हैं वे समन्वय द्रष्टा थे वे विरोधों में एकता के सूत्र का दर्शन करने वाले थे औद्यागीकरण की संतुलित स्थापना के साथ उन्होने महात्मा गांधी के सपनों के भारत को तथा रामराज्य की कल्पना को ग्राम्य राज्य और पंचायती राज योजना के माध्यम से साकार करने का प्रयत्न किया औद्योगीकरण के साथ उन्होंने ग्रामीण उद्योगों को भी प्रोत्साहित किया यह उनकी सामाजिकता का दूसरा पहलू है

उनकी सामाजिकता का तीसरा सोपान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संयंत्रों के ताने बाने में निर्मित हुआ है इसी सोपान पर वे विश्व के उन महान राजनीतिक चिंतकों के साथ खड़े हैं जिन्होंने विश्व शांति के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है वे जानते थे कि भारत का अपना एक निजी वैशिष्ट्य है तथा विश्व के दो शक्तिशाली गुटों में से किसी एक के साथ गठबंधन कर लेने पर उसका निजीपन जाता रहेगा इसलिए उन्होंने तटस्थता की नीति को भारत की अंतराष्ट्रीय नीति के रूप में स्वीकार किया भारत की आधुनिक विश्व की राजनीति में जो महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है वह उसकी इसी नीति का फल है किन्तु तटस्थता के संबंध में इन दिनों काफी वाद-विवाद हुआ है चिंतकों ने तटस्थता को संदिग्ध महत्व की चीज कहा है यह भी कहा गया है कि भारत की तटस्थता ढ़ुलमुल सी चीज है तटस्थता तो उसे कहते है जो नदी की धारा को काटता हुआ, दृढ़ चट्टान की भांति अडिग और अटल रहता है किन्तु भारत की तटस्थता चट्टान की सी तटस्थता नहीं है, यह तो एक ऐसे तिनके की सी तटस्थता है जो नदी के प्रवाह के अनुकूल इस किनारे से उस किनारे तक बहता रहता है तथा यह गर्व करता है कि वह तटस्थ है किन्तु यदि हम चीनी आक्रमण के संदर्भ में अपनी विदेशी नीति की परीक्षा करें तो हमें विदित होगा कि चीनी आक्रमण का प्रतिरोध हमनें स्वयं अपनी शक्ति से नहीं किया था किन्तु उसके पीछे समस्त विश्व का (यहां तक कि रूस का भी) नैतिक बल जुड़ा हुआ था यह नैतिक सहानुभूति हमें अपनी तटस्थता की नीति की बदौलत ही मिली थी सिद्धांतों की परीक्षा तर्क-विर्तक के द्वारा नहीं होती यह तो संक्रांति के समय में ही अपनी असलियत जाहिर करती है तथा प्रतिकूल परिस्थितियों ने हमारी विदेशी नीति की सार्थकता को सिद्ध कर दिया है

पंचशील का सिद्धांत विश्वशांति के क्षेत्र में नेहरू जी की सबसे बड़ी देन हैं। किन्तु यह पूरी तरह से सफल नहीं हो सका इसे स्वीकार करने वाले देशों ने ही इसका असम्मान किया है इससे यह जाहिर होता है कि यह एक उच्च धारणा है तथा इसको धारण करने के लिए उच्चतर मानसिक स्थिति की आवश्यकता होती है जब तक मनुष्य पशु है, जब तक उसके मन में एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या और घृणा की भावना भरी हुई है, जब तक उसके ह्रदय में उपनिवेशाकांक्षा के कीटाणु मौजूद है, तब तक पंचशील तो क्या सारे धर्म, समस्त आदर्श निष्फल ही होंगे किन्तु जिस तरह पशुत्व से देवत्व पराजित नहीं हुआ करता जैसे दानवता मानवता को समूल नष्ट नहीं कर सकती उसी प्रकार पंचशील की सार्थकता भी कभी मर नहीं सकती जैसे ही संसार के राष्ट्र व्यस्क बुद्धि से संपन्न होंगे और युद्ध की विभीषिका और निरर्थकता से अवगत होकर उसे त्यागना चाहेंगे, तब हम पूरे विश्वास के साथ यह कह सकेंगे पंचशील में ही उन्हें अपनी सुरक्षा का आश्वासन मिल सकेगा पंचशील वह वटवृक्ष है जिसकी छाया में विश्व के सभी राष्ट्र एक दूसरे से मिलजुलकर विश्राम कर सकते हैं, यह वह विशाल जलयान है जिसकी सहायता से युद्ध, दम्भ, घृणा और पारस्परिक ईर्ष्या के तरंगाकुल सागर को पार किया जा सकता है किन्तु यदि कोई उस वटवृक्ष को ही नष्ट करना चाहे या यान की तली में ही छेद करने का प्रयत्न करे तो यह समझ लेना चाहिए कि वह विश्वशांति का प्रबलतम शत्रु है कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारतीय सीमाओं पर चीन की नित नई कारवाइयां उसके बुरे इरादे का ही इजहार करती है विश्वशांति के समर्थकों को इन प्रच्छन्न घातकों की पहचान करनी होगी और उनको दण्ड देना होगा नेहरू जी की सामासिकता का चौथा सोपान है, सांस्कृतिक मूल्यों में समन्वय वे समझते थे कि आधुनिक युग में फिरके और संप्रदाय अशांति का ही बीज वपन करते हैं तथा राष्ट्र का जटिल संप्रदायवाद और फिरके परस्ती से विषाक्त हो जाता है रूस के सामने भी यह समस्या थी और इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने साम्यवाद के नाम से एक नये धर्म का प्रवर्तन किया है नेहरू जी ऐसी चीजों पर विश्वास नहीं करते थे वे एक इतिहासकार थे उन्होंने देखा था कि धार्मिकता की आड़ में स्वार्थी लोगों की बन आती है तथा संसार के इतिहास का प्रत्येक युद्ध धर्मान्धता और संकीर्ण मनोवृत्ति से उत्पन्न हुआ है ऐसी स्थिति में कल्याणकारी राज्य की बुनियाद किस पर रखी जाय ? क्या साम्प्रदायवाद के समान किसी अन्य धर्म की स्थापना करके इस समस्या का समाधान पाया जा सकता है नेहरू जी उपदेशक नहीं थे उन्होंने किसी धर्म का उपदेश नहीं दिया था किन्तु उन्होंने यह जान लिया था कि मानवीय सहिष्णुता और सौह्राद्र की आधारशिला पर ही कल्याणकारी राज्य का निर्माण हो सकता है यही कारण है कि उन्होंने धर्म के विषय में अपनी व्यक्तिगत धारणा को कभी व्यक्त नहीं किया यद्यपि उन्होंने किसी ईश्वर को प्रत्यक्ष रूप में नहीं माना और अनेक लोगों के द्वारा वे नास्तिक कहे गये किन्तु उनका अपरिसीम मानव-प्रेम, विश्वबंधुत्व का भाव और उनकी अपरिमित सहिष्णुता एवं उदारता उन्हें नास्तिकों की सर्वोच्च श्रेणी प्रदान करती है

उन्होंने जीवन में किसी विशिष्ट नाम आकार धारी ईश्वर की उपासना नहीं की किन्तु उसकी आस्तिकता इससे भी ऊंची कोटि की थी वे जनमानस में ईश्वर को प्रतिष्ठित पाते थे मानव ही उनका एकमात्र ईश्वर था उसकी कल्याण साधना उनकी एकमात्र पूजा थी स्वामी विवेकानन्द ने देश के नवयुवकों का आव्हान करते हुए कहा था : तुम्हें ईश्वर को खोजने और कहाँ जाना है ? ये दीनहीन निरीह भारतवासी ही तुम्हारे ईश्वर हैं स्वामीजी ने नवजागृत भारत के लिए एक नये ईश्वर का निर्माण करते हुए कहा था कि - आगामी पचास वर्षो तक तुम अपने समस्त देवी-देवताओं को तिलाँजली दे दो भारत ही तुम्हारा आराध्य देव हो उसी की पूजा तुम्हारी परमाराधना हो नेहरू जी ने अपने जीवन में युगाचार्य विवेकानन्द के इस संदेश को ही अपना ईश्वर माना और भारत की ही उन्नति और समृद्धि के लिए अपने को खपा दिया अपनी वसीयत में भी उन्होंने अपने अवशेष को भारत की मिट्टी में मिला देने की इच्छा प्रगट की वे महान आस्तिक थे स्वामी विवेकानन्दजी ने राष्ट्रदेव की पूजा का जो पथ इंगित किया था, नेहरू आखरी साँस तक उस पर चलते रहे स्वामीजी ने नवीन भारत की जो रूपरेखा तैयार की थी उसे वे आखिरी क्षण तक साकार करते रहे वे सच्चे अर्थो में विषपायी थे उन्होंने निन्दा और अवमानना तथा कटु समीक्षा के विष को अपने लिए रख छोड़ा और अपने देशवासियों को सदैव अमृत ही प्रदान किया वे भारतीय इतिहास के एक ज्वलंत नक्षत्र हैं जिन्होंने विजड़ित सामाजिक प्रक्रिया को पुन: जीवित किया है

No comments:

सत्वाधिकारी प्रकाशक - डॉ. परदेशीराम वर्मा

प्रकाशित सामग्री के किसी भी प्रकार के उपयोग के पूर्व प्रकाशक-संपादक की सहमति अनिवार्य हैपत्रिका में प्रकाशित रचनाओं से प्रकाशक - संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है

किसी भी प्रकार के वाद-विवाद एवं वैधानिक प्रक्रिया केवल दुर्ग न्यायालयीन क्षेत्र के अंतर्गत मान्य

हम छत्तीसगढ के साहित्य को अंतरजाल में लाने हेतु प्रयासरत है, यदि आप भी अपनी कृति या रचना का अंतरजाल संस्करण प्रस्तुत करना चाहते हैं तो अपनी रचना की सीडी हमें प्रेषित करें : संजीव तिवारी (tiwari.sanjeeva जीमेल पर) मो. 09926615707