Saturday, July 26, 2008

मूर्तिकार जे.एम. नेल्सन के गांधी और मेरी मुसीबत

गांधी डिवीजन से पास होना और मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी, इन दोनों जनप्रिय फिकरों से हम सब प्राय: परिचित हैं। पता नहीं गाँधी जी तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए इसलिए यह उक्ति चल पड़ी या फिर वे तृतीय श्रेणी में रेलयात्रा करते थे इसलिए यह कहावत बनी, लेकिन यह चर्चित कथन। ठीक उसी तरह मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी कथन भी चर्चित है। पहले का अर्थ अभी जानना बाकी है लेकिन पिछले दिनों भाई जे.एम. नेल्सन, मूर्तिकार, की उदारता से परेशान होकर मैं मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी कहावत का अर्थ जरुर ठीक ढंग से समझ जान सका। हुआ यूूं कि आठ वर्ष पहले मेरे गांव लिमतरा में कबीर प्रसंग का यादगार आयोजन संपन्न हुआ। गाँव के उत्साही सरपंच भाई झालाराम ने गाँव में चार-पांच मत्रियों की उपस्थिति का लाभ लेते हुए गाँधी प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय ले लिया। स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती की याद में पंचायतों के द्वारा स्मृति स्तंभ आदि बनाये जा रहे थे। पैसा उसके पास था ही। सोचा लगे हाथों गाँधी जी को ही मंत्रियों के हाथों गाँव में बैठा लें।

आनन-फानन गाँव के मूर्तिकार सतरोहन से मूर्ति बनवाई गई और तत्कालीन गृहमंत्री श्री चरणदास महंत ने मूर्ति का अनावरण कर दिया। अनावृत गाँधी को देखकर वहीं ड्यूटी पर हाजिर तत्कालीन सी.एस.पी. श्री आर.पी. शर्मा ने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा कि मूर्ति आखिर है किसकी ? सरपंच भी पास ही खड़ा था। वह इस प्रश्न से बहुत शर्मिन्दा हुआ। यह शर्मिन्दगी लगातार बढ़ती रही। हर आगन्तुक शर्मा जी के अंदाज में यही प्रश्न पूछ बैठता। अंत में झालाराम ने खिसियाकर कहा - भैया, अच्छी मूर्ति आप बनवा दीजिए, उसे स्थापित करने और समारोह का खर्चा देने का जिम्मा मेरा। मैंने भल से भल समझा। तब तक मैं प्रसिद्ध मूर्तिकार श्री जे.एम. नेल्सन से मिला भी नहीं था। उनकी कृतियों से परिचित जरुर था। मगर विभागीय साथी नरेन्द्र राठौर से कभी कभार नेल्सन गाथा सुनता जरुर था। लेकिन बात बनती है तो अकस्मात। एक दिन खाने-पीने की एक रौनकदार पार्टी भाई नेल्सन के घर के पास ही सुनिश्चित हो गई। हम दलबल के साथ नेल्सन को भी आमंत्रित करने गये। उसी दिन पहली बार मैं नेल्सन से मिला। सेक्टर एक स्थित उनके क्वार्टर में बड़े-बड़े सजीव हाथी रात के अंधियारें में भी यूं लग रहे थे मानों मंथर गति से चल ही पड़ेंगे। हम सबने लाख आमंत्रित किया मगर नेल्सन जी ने साफ मना कर दिया। वे पार्टी में शामिल नहीं हुए।
पीते-खाते हुए नेल्सन प्रसंग चला। उनसे पूर्व परिचित मित्रों ने बताया कि नेल्सन इन लोगों की तरह मुँह नहीं जुठारते। वे बाकायदा तीन दिन की समाधि लगाकर अंगूर की बेटी के साथ जश्न मनाते हैं। उनकी त्रिदिवसीय अघोर साधना के हजारों किस्से हैं। मगर मैं पहली बार सब किस्सा सुन पा रहा था। मुझे बड़ी जिज्ञासा हुई।

दो-चार दिन बाद समय निकाल कर मैं जा पहुंचा नेल्सन जी के घर। शालीनतापूर्वक वे मुझसे मिले। लपक कर मिलने की उनकी आदत हैभी नहीं। मैंने भी बिना भूमिका के आग्रह कर दिया कि भाई लिमतरा में गाँधी जी पहचाने नहीं जाते, आप एक ढंग का गाँधी हमें दे दीजिए। उन्होंने आग्रह सुनकर दन्न से कह दिया कि एक हफ्ते में आकर ले जाइये। गाँधी जी मेरी तरफ से मुफ्त।
मैंने इसे घुनकी में कही बात समझ ली। लेकिन एक दिन उनके घर के पास से गुजर कर अपने दफ्तर की ओर जाते हुए क्या देखता हूँ कि गाँधी की आवक्ष प्रतिमा आने-जाने को घूर रही है। बस चश्मा भर नहीं है गाँधी जी के कानों में।

मैंने राहत की साँस जी कि चलो चश्मा नहीं है इसलिए बापू मुझे ठीक से देख नहीं पाये होंगे। दफ्तर से लौटकर मैं जा पहुंचा नेल्सन के घर। वे कुछ काम कर रहे थे। मुझे देखकर बोले - आपने तो आना ही छोड़ दिया। देखिए गाँधी जी साँचे में ढलने के लिए तैयार हैं। कल साँचा बनेगा फिर हफ्ते भर में मार्बल कास्टिंग के गाँधी आपके गाँव जा सकते हैं। अब मैं घबराया। चूंकि इस बीच झालाराम ने मुझे टका सा जवाब दे दिया था कि या तो प्रभारी मंत्री श्री धनेश पाटिला को आप लायें या गाँधी जी को अपने खर्चे से स्थापित करें। मैंने प्रयास भी किया मगर पाटिला जी उपलब्ध नहीं हुए अलबत्ता गाँधी जी सहजतापूर्वक उपलब्ध हो गये।

गाँधी जी साँचे में आ गये थे। मेरी मुसीबत जस की तस। मैंने एक युक्ति सोची। गोढ़ी में मैं पढ़ा हूं। वहीं पुराने विद्यार्थियों का मिलन समारोह रखकर गाँधी जी को समारोहपूर्वक स्थापित कर दूं। यह मैंने सोचा कि चूंकि गोढ़ी स्कूल का नाम पहले महात्मा गाँधी हाई स्कूल ही था। जो शासकीयकरण के बाद अब बदल गया है। अब गाँधी जी हट गये है, उनके बदले शासन आ गया है। इसलिए पुन: गाँधी को जोड़ने की मेरी युक्ति सबको अच्छी लगी। बड़ी तैयारी के साथ गोढ़ी में एक बड़ी बैठक मैंने रखवाई। दुर्ग के एस.पी. कलेक्टर और शिक्षाअधिकारी की सम्मति मैंने ले ली। मेरे आग्रह पर मेरे सहपाठी और क्षेत्र के कम्युनिस्ट नेता साथी दुखितराम बैठक में आये। भला उनके बगैर य आयोजन हो भी कैसे सकता था। उन्होंने हम सब की बातों को सुनने के बाद जनसभा तो संबोधित करने के अंदाज में कहना प्रारंभ किया - साथियों, आप सबको लाल सलाम, साहेब बंदगी। साथियों, अच्छा लगा यह जानकर कि आप सब मिलकर बैठकर पुरानी स्मृति ताजा करना चाहते हैं। लेकिन कामरेड परदेशीराम से मैं पूछना चाहता हूं कि घोर अकाल और परेशानी भरे दिनों में यह कैसा आयोजन वे कर रहे हैं। साथियों, परदेशीराम वर्मा लिखते पढ़ते हैं। उनकी शहर में पहचान है। शहर में सेठ-साहूकार, मालदार व्यक्ति बहुत हैं और उनसे परदेशीराम की पहचान भी है। गाँधी से हमारी दुश्मनी नहीं है साथियों। वे आयें स्थापित हों। वे भी जन-नेता थे। लेकिन साथियों, मेरी भी एक शर्त है और यह शर्त जनता के हित में। गाँव के हित में।
इस बात पर उनके स्थानीय समर्थकों ने जोर की ताली बजाई। दुखित राम पुन: अपने कुर्ते की बांहों को ऊपर चढ़ाते हुए - साथियों, हमारे गोढ़ी गांव में भावना तो बहुत है मगर साधन नहीं है। हम बाहर से आये साथियों का स्वागत तो करेंगे मगर स्वागत का समूचा खर्च कामरेड परदेशीराम वर्मा जुटायेंगे। खर्च भी वे ही जुटायेंगे, कार्यक्रम भी वे ही करेंगे और गाँधी को स्थापित करने की सारी जिम्मेदारी भी वे ही लेंगे। हम लोग केवल भावात्मक सहयोग देंगे। साथ-साथ रहेंगे। साथ-साथ रहना भी छोटी बात नहीं साथियों। और एक बात में स्पष्ट कर देना चाहता हूं। हमारा गांव गोढ़ी बहुत बड़ा है। कुछ नये निर्माण शासकीय सहयोग और सांसद निधि से हुआ ै। हमारे गांव में छात्रावास भवन बनकर तैयार है। उसका हस्तांतरण समारोह भी उसी अवसर पर होना जरुरी है। फिर इस शाला में जहां हम पढ़कर निकले, चार कमरे श्री ताराचंद साहू जी सांसद महोदय बनवा रहे है, इन कमरों का हस्तांतरण समारोह भी जरुरी है। तो भाई श्री अजीत लोगी मुख्यमंत्री जी और सांसद ताराचंद साहू को लाने और लोक कला आदि करवाने की जिम्मेदारी भी परदेशी भाई की। वे सक्षम हैं और उत्साही हैं।

अब मुझे काटो तो खून नीं। बालोद से हमारे गुरु श्री अमृत दास सहित सत्तर जुन्ना विद्यार्थी वहां एकत्र थे। मैं बहुत घबराया। मुझे लगा कि त्रिटंगी दौड़ में ही मैं परेशान था, भाई दुखितराम मुझे बोरा-दौड़ में जोतकर मुड़भसरा गिराना चाहते हैं। मुझे नेल्सन पर भी खूब गुस्सा आया। कुछ नाराज मैं गाँधी जी पर भी हुआ कि अच्छा फंसाया बापू ने। लेकिन हिम्मत हारने से तो काम चलने वाला नहीं था। अमृतदास सर ने बहुत भावुक होकर कहा कि खोंची खोंची माँगकर हम ला सकते हैं। मिल बैठकर खाने का सुख वह भी तुम्हारे जैसे अपने पुराने विद्यार्थियों के साथ, अ.....ह....ह...., धन्य हैं यह पागल परदेशी जिसने ऐसा पुनीत काम अपने हाथ में लिया।

मैं अपने पागलपन के कारण पहे ही घिरा पड़ था, दास सर अलग घेर रहे थे। मेरी हालत बाड़ से घिरे खेत में हरियर फसल देखकर कूद पड़े बछरु की तरह हो गई थी जिसे सब तरफ से रखवाले डंडा लेकर दौड़ा रहे हों और बछरु को भागने की जगह सूझ न रही हो।

मैं मन ही मन गाँधी जी के प्रिय भजन का पारायण करता चुपचाप बैठा था... ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सम्मति दे भगवान।
दास सर की बोलने की अपनी प्रवाहपूर्ण शैली है। जब वे कक्षा में पढ़ाते थे तो हम लोग खिड़कियों से झाँक-झाँक कर उनकी अदायें देखते थे। बड़ी मोहक शैली है दास सर की। मैं अदा पर फिदा तो उस दिन भी था मगर मृदंग की स्वर लहरी को सुनकर शिकारी की ओर आँख मंूदकर चली चलने वाली हिरनी की स्थिति को प्राप्त् हो रहा था।

उगलत निगलत पीर घनेरी।
तभी दास सर ने सस्वर कहा
वैष्णव जण तो तेणे कहिए, जे पीर पराई जाणे रे।

अब मुझे रास्ता मिल गया। आभार व्यक्त करते हुए मैंने कहा कि दुखित भाई की पीड़ा एकदम सही है। क्षेत्र में अकाल है। ऐसे में माननीय मुख्यमंत्री जी अगर आ जायें तो कुछ राहत की माँग हम कर सकेंगे। इसलिए फिलहाल यह जो मेरा कार्यक्रम है उसे निरस्त मानिए। हम बड़ी तैयारी के साथ मुख्यमंत्री को बुलाकर कुछ क्षेत्र के लिए मांगे, यही ठीक है। दुखित भाई जन-नेता है। उनकी सोच पर मुझे गर्व है।


पासा पलटते देख दुखित भाई और सब ने कुछ कहने का प्रयास तो किया लेकिन मैं भी तो वाकपटु अमृतदास सर का शिष्य हूं। कुछ इस तरह अपनी बात मैंने रखी कि उस दिन गोढ़ी का फंदा भी किसी तरह कटा।

लेकिन यहाँ कहानी का अंत होता नहीं। अभी नेल्सन जी के घर में गाँधी जी साँचे से निकलने को आतुर थे। दो दिनों बाद क्या देखता हूं कि मार्बल कास्टिंग में दमदमाते मजबूर महात्मा गांधी नेल्सन के घर में विराज रहेहैं । नजदीक गया तो देखा नेल्सन जी बापू का चश्मा ठीक करने में तन्मय थे। मैं थका हारा सा प्लास्टिक की कुर्सी में जा बैठा।

नेल्सन ने काम करते हुए ही कहा - बड़े भैया, लीजिए आपके गाँधी जी तैयार है। बस पर्ल पेंट भर मारना है। फिर देखिए इनकी दमक।

मरता क्या न करता। मैं कुछ इधर-उधर की बात करता रहा फिर तीन चार दिन बाद आने की बात कहकर मैं उठ खड़ा हुआ। अब मुझे दिन चैन मिले न रात को आराम। कभी सोचूं कि इस मुसीबत से छुटकारे के लिए गाँधीवादी चिंतक श्री कनक तिवारी की शरण में चला जाऊं। मगर वे हाईकोर्ट की जरुरत को देखते हुए अपनी सेवा बिलासपुर को दे रहे थे। पद्मनाभपुर में ताला पड़ा था। वे रहते तो मुझे गाँधी जी से जरुर साफ साफ बचा ले जाते। गाँधी जी का सारा वजन वे सम्हाल लेते। मगर वे भी मुझे और गाँधी जी को छोड़कर दूर जा निकले थे। काले कोर्ट वालों की दुनियां की बारीकी नये सिरे से समझ-समझा रहे थे।

इस बीच मैंने अपने विभाग के अफसरों को भी अपने हिसाब टटोला। रजत जयंती लोककला महोत्सवों की श्रृंखला इस वर्ष चल पड़ी। चूंकि २००० पचीसवां वर्ष है इसलिए प्रबंधन ने तय किया कि गांवों में लगातार लोकोत्सव हो। मोरिद और बोड़ेगांव में ऐसे दो आयोजन हो चुके थे। मुझे लगा कि अगर मेरे मन के अनुकूल गांव में यह आयोजन हो जाय तो गाँधी जी से मुझे बड़ी आसानी से छुटकारा मिल लाय, वहीं स्थापित कर दूं। और नाच गाकर गंगा नहा लूं।
मुझे नेल्सन के घर में दमदमाते महात्मा गाँधी की मूर्ति के पास जाने की हिम्मत ही न हो। परेशानी के उन दिनों में मुझे चिंता होती कि गाँधी जी नेल्सन के घर से प्रस्थान करेंगे भी या वहीं डटे रहेंगे।

शंकर भक्त रावण का वह किस्सा दिमाग में कौंध-कौंध जाता। रावण के आग्रह पर शंकर भगवान उसके साथ लंका लाकर स्थापित होने के लिए मान गये। रावण ने उन्हें सपरिवार पर्वत सहित उठा भी लिया लेकिन शर्त यह थी रास्ते में कहीं भी रखे कि शंकर जी टरेंगे नहीं। रावण को रास्ते में एक्की लगी। और जो उसने शंकर भगवान सहित पहाड़ को जमीन पर रखा और फिर वहाँ से उन्हें हिला नीं सका। मुझे परेशानी से भरे उन दिनों नेल्सन के घर के पास से गुजरते ही एक्की लग जाती थी। गाँधी जी यथा स्थान थे। परेशान होकर मैंने बड़े इसरार के साथ अपने साहब वरिष्ठ प्रबंधक श्री शैलेन्द्र श्रीवास्तव को आग्रह किया कि एक लोकोत्सव मेरे पहुंच के गांव में कर देवें। वे सुनते ही उखड़ गए। मंत्रियों और शासकीय अधिकारियों के साथ मेरी पहचान से अकसर बिदक उठने वाले श्रीवास्तव जी के साथ सुर में सुर मिलाते हुए छोटे साहब श्री मोहनसिंह चंदेल ने भी खूब जमकर सुनाया कि इसीलिए मेरी तरक्की नहीं हो रही है। मैनेजमेंट को सब पता है। मैं हक्का-बक्का रह गया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर यह गाँधी आख्यान मैनेजमेंट को कैसे पता चला। साहित्य संस्कृति संबंधी जो भी जानकारी मैनेजमेंट को मिलती है वह तो सदी की सबसे लंबी कविता लिखने वाले भाई अशोक सिंघई के मार्फत ही मिलती है। अशोक भाई से मेरी मित्रता जगजाहिर है। वे तो बताने से रहे। तो फिर मैनेजमेंट ने जाना कैसे। मैनेजमेंट की थोड़ी बहुत जानकारी मुझे भी है। वह वरिष्ठ प्रबंधकों की आंखों से देखता है और कुशल प्रबंधकों के कानों से ही सुनता है। तो मोहनसिंह चंदेल का यह डराने वाला डायलाग बहुत प्रामाणिक नहीं लगा मुझे। मगर वे अफसर हैं इसलिए उनकी बात को मैं काट भी नहीं सकता था। क्योंकि उनके साथ मैनेजमेंट था जबकि मेरे साथ केवल महात्मा गाँधी भर थे। इस बार भी महात्मा गाँधी को मैनेजमेंट से मुँह की खानी पड़ी और मैं सोचने लगा कि बापू ने गोरों को जरुर ठीक कर दिया इसलिए यह गीत चर्चित भी हुआ ...

गली गली खोर खोर में उड़त हे गाँधी के नाम
गाँधी बबा बड़ परतापी,
धन धन ओकर छाती,
बिन गोला बारुद भगाइस,
गोरा अंगरेज उत्पाती।

गोरों से तो प्रतापी गाँधी ने पार पा लिया मगर इस बार गोरों से तो पाला पड़ा नहीं था, इसलिए गाँधी बबा बड़ परतापी बिना गोला बारुद के प्रभावी नहीं सिद्ध हुए और मैं फिर निकल पड़ा नई संभावनाओं की तलाश में।
मुझे याद आया कि मैं साक्षरता समिति से जुड़ हुआ हूं। श्री डी.एन. शर्मा से कुछ मदद लेने का प्रयास क्यों न करुं, श्री नेल्सन, श्री डी.एल. बन्छोर को लेकर मैं इसी उधेड़पन में साक्षरता सदन आ पहुंचा। मैं भूल गया था कि अब डी.एन. शर्मा वे देवेन्द्र नाथ नहीं रह गये थे जो एक-एक कहानी और नाटक के लेखन के लिए दाद देते अघाते नहीं थे। अब वे छत्तीसगढ़ राज्य के साक्षरता प्रमुख हो गये थे। मैं पहुंचा तो दोनों कानों में एक-एक फोन का चोगा लगाये कभी इसे कभी उसे कुछ आप्त्वचन सुना रहे थे। बीच-बीच में साक्षरता सेवी देवी-देवताओं के द्वारा प्रस्तुत चेकों पर दस्तखत भी कर रहे थे। वहां से फारिग होते तो फाइल में कुछ लिखने लग जाते। कभी फैक्स मशीन पर हाथ मारते तो कभी किसी कर्मचारी को डांट पिलाते। आधे घंटे के बाद बाकायदा कुछ भूमिका बांधते हुए मैंने अपनी बात रखने का प्रयास प्रारंभ किया - शर्मा जी, ऐसा है कि मैंने एक उपन्यास लिखा है नवसाक्षरों के लिए। उसकी कम्पोजिंग हो चुकी है।

तो फ्लापी दे दो, शर्मा जी ने का। मैंने कहा - कम्पोजिंग का चार्ज ..... ।
शर्मा जी बड़े सुनियोजित ढंग से उखड़ते और झुकते हैं। उन्हें वह अवसर मिल गया जहां से प्रभावी ढंग से उखड़ा जा सकता था। वे लगभग दुत्कारते हुए बोले - देखो यार, फालतू बातें आप करने लगते हैं। काम की बात करो। बेकार में मेरा समय मत लो। बात कह दी तो कह दी। फ्लापी की बात करो। वस्तुत: मैं तो उन्हें गाँधी से जोड़ने की जुगत जमाने आया था। यहाँ तो हालत ऐसी हो रही थी मानों बेटी ब्याहने की उम्मीद लेकर पहुंचे बाप को पानी माँगने भर से फटकार दुत्कार शुरु हो जाय।

मैं नेलसन को और अपने बालसखा को साथ लेकर इस उम्मीद में भी गया था कि भले गाँधी यात्रा में डी.एन. शर्मा शरीक न हों मगर मित्रों पर मेरा रौब तो पड़ेगा ही देखो छत्तीसगढ़ शासन का साक्षरता स्वामी मुझे कितना मानता है। मगर हर बार आदमी को अपने मन के अनुरुप तो व्यवहार मिलने से रहा। हम सब लज्जित से उठ खड़े हुए। साक्षरता सदन से निकलते हुए मुझे पंचराम मिरझा का गीत याद ही आया -


तैं हा जान गँवाये गाँधी,
इही तिरंगा खातिर तैं हा जान गँवाये।
मरगे कतको गोली खाके,
काटे तैं चौरासी।
३० जनवरी ४८ के
नाथू ह मारिस गोली,
प्रान तियागे ये मोर बाबा,
भर दिये तैं हर झोली,
तैं हर जान गँवाये गाँधी,
तैं हर जान गँवाये ......।

निराश हताश मैं घर लौट आया। शाम का समय था। अचानक कोलिहापुरी गाँव का मेरा मंचीय चेला केशव हरमुख बंटी अपने लाव लश्कर के साथ आ धमका। भाई बसंत देशमुख की जीवन संगिनी लक्ष्मी भाभी कोलिहापुरी खानदान से आई हैं। गाड़ा भर कलारी और काठा भर तुतारी वाले मालगुजार और नेता श्री यशवंत हरमुख की बहन हैं। बसंत भाई के कारण हरमुख परिवार में मेरी भी थोड़ी सा इज्जत है। केशव हरमुख यशवंत जी का यशस्वी सपूत है। वह कलाकार तो हैं ही, जनपद सदस्य तथा भविष्य का प्रतापी नेता है।

उसने चरण स्पर्श करते हुए कहा - चाचाजी, गाँव में माननीय मुख्यमंत्री अजीत जोगी का कार्यक्रम सुनिश्चित है। सूखा राहत कोष के लिए कुछ धन हम उन्हें देंगे। २ फरवरी के चन्दूलाल चंद्राकर पुण्य दिवस है। उसी दिन समारोहपूर्वक देंगे। मैं उदास-उदास उसकी बात सुनता रहा। केशव हरमुख बसंत देशमुख के फूफा मानता है इसलिए वह मुझे फूफा कहे यह हसरत मेरी सदा रही मगर वह चाचा कहता है। उसके पिता दाऊ यशवंत हरमुख मुझे उसका गुरु मानते हैं। मेरे मुंह बोले भाई डी.पी. देशमुख के चाचा की लड़की है, केशव की माताजी उस हिसाब से मैं केशव का मामा भी हूं।

केशव उर्फ बंटी ने मुझे उदास देखकर फिर कहा - चाचाजी, क्या बात है। कुछ परेशान से दिख रहे हैं।

मैंने अब लगभग रुँआसे होकर साग्रह कहा - भोला गाँधी जी से बचा दे बंटी। परेशान हँव बाबू। बंटी ने आश्चर्य पूछा - गाँधी से परेशान है ? कैसे चाचाजी ?


तब मैंने पूरा वृतांत उसे सुना दिया। सुनकर वह हो-हो कर हँसने लगा। उसने कहा, चाचाजी, इसीलिए कहावत बनी है - मजबूरी के नाम महात्मा गाँधी। यह कहकर वह और उसके सभी साथी फिर हँस पड़े। मुझे भी हँसी आ गई।

उसने कहा - चाचाजी, बड़े काम की बात है। देखिए, छत्तीसगढ़ राज बना डॉ. खूबचंद बघेल की कल्पना के अनुरुप। इसे बनवाने के लिए चली लड़ाई। उसका सफल नेतृत्व किया हमारे चंदूलाल बबा ने। लेकिन किया गाँधीवादी अहिंसक तरीके से ही न। तो बस दो फरवरी पुण्य दिवस पर गाँधी जी को हम अपने गाँव में स्थापित करेंगे। गाँधी जी स्थापित होंगे इस वर्ष और उनके चेले चंदूलाल बबा की मूर्ति लगेगी अगले बरस। मुझे लगा कि अकाल में बाढ़ी माँगने वाले दुखी किसान को मानो उदार मालगुजार ने केवल परिवार पालने के लिए ही नहीं बल्कि खेत में बोने के लिए भी भरपूर बिजहा देने के लिए भंडार खोल दिया हो।

आनन-फानन योजना बन गई कि कैसे गाँधी जी की पूजा दाऊ वासुदेव चंद्राकर नेल्सन के घर में करेंगे। कैसे बाजा रुँजी के साथ गाँधी जी को हम ट्रेक्टर ट्राली में सजाकर कोलिहापुरी लायेंगे और स्थापित करेंगे –

बंटी दल जब घर से उठा तो गाँधी जी से जुड़े गीत फिर मेरे मानस में उमड़ने-घुमड़ने लगे ....

तें भारत के भाग ल फेरे,
अपन के साहबी बाना हेरे।
तें घर घर म सत के दिया बारे,
परेम के ओमा तेल डारे।
मन मंदिर के अंधियारी माँ,
जोत जलाये तैं भारत माँ।
और विप्र जी की ये पंक्तियाँ भी ...
देवता बन के आये गाँधी,
देवता बन के आये।

०००

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