Saturday, July 26, 2008

काँग्रेस के नैष्ठिक सिपाही श्री वासुदेव चन्द्राकर

राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल (अध्यक्ष - छत्तीसगढ़ विधानसभा)

श्री वासुदेव चन्द्राकर मेरे अभिन्न मित्र हैं और मैं उनकी बहुत ही इज्जत करता हूं वैसे मेरा उनका परिचय बहुत ही पुराना है फिर भी वर्ष ८० के पहले से ही अथवा ७० के दशक में मेरे उनसे निकट के संबंध बनते चले गये। विशेषकर आपात काल में तथा आपात काल के बाद जब जनता पार्टी का शासन आया, उस समय तत्कालीन शासन ने जो प्रतिक्रियात्मक कार्यवाहियां सामान्य तौर पर सभी कांग्रेस जनों और विशेषकर कांग्रेस की नेता श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध प्रारंभ की। उन अवसरों पर निष्ठावान कांग्रेसजनों में अद्भुत आत्मबल आया और उनमें एकजुटता उत्पन्न हुई तथा सामान्य स्थितियों से भी ज्यादा, अत्यधिक दृढ़ता और मजबूती के साथ अन्यायों के प्रतिकार स्वरुप वे खड़े हुए। ऐसे लोग जो हिम्मत के साथ सामने आये और जिन्होंने कांग्रेस का साथ दिया उनमें श्री वासुदेव चन्द्राकर अलग से पहचाने जाते हैं। वे लगभग सदैव प्रदेश कांग्रेस कमेटी तथा अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के निर्वाचित सदस्य रहे हैं तथा उन्होंने कभी भी नेहरु परिवार का साथ नहीं छोड़ा है। मेरी लगभग यही स्थिति रही तथा एसे तमाम अवसरों पर हम परस्पर मिलते थे, विचार-विमर्श करते थे और उस समय विचार-विमर्श के अंतर्गत एक भावना यह भी थी कि छत्तीसगढ़ के साथ में जो अन्याय हो रहा है वह ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति, छत्तीसगढ़ के लोग, छत्तीसगढ़ का विकास, इस दिशा में कार्य किया जाना चाहिये। वर्ष १९७७ में जब छत्तीसगढ़ राज्य बनाये जाने के पहले दौर का संघर्ष प्रारंभ हुआ उसमें वे भी थी और मैं भी था। उस समय पूरे देश में कांग्रेस पूरे विपक्ष में थी और मैं भी थी और कांग्रेस जनों को जेल भेजा जा रहा था। उन जेल भेजे जाने वाले लोगों में मैं भी था, बिलासपुर, भोपाल, दिल्ली सभी स्थानों में वह सुख मै भोगता रहा और आदरणीय चन्द्राकर जी भी उनमें से एक थे। वर्ष १९८० में जब श्री अर्जुनसिंह जी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हुए तो स्वाभाविक है कि श्री वासुदेव चन्द्राकर जी, जो कि अर्जुनसिंह जी पहले से जुड़े हुए थे और कमोबेश मेरी भी यही स्थिति थी कि हम लोग सत्ता से दूर रहने के बाद भी कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व के निकट आकर संगठन को मजबूत करने की दिशा में एकजुट हुए। श्री अर्जुनसिंह जी ने वर्ष १९८० में ही मुझे मध्यप्रदेश राय गृह निर्माण सहकारी वित्त समिति का अध्यक्ष


नामांकित किया। जहा तक मुझे स्मरण है उस समय श्री वासुदेव चन्द्राकर को उन्होंने मार्केटिंग फेडरेशन का अध्यक्ष बनाया था। विधान सभा में रहकर लोग संगठन का उतना कार्य नहीं कर पाते, उससे ज्यादा हम लोग अपनी संस्थाओं के माध्यम से तथा दूसरे विभिन्न माध्यमों से संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में लगे रहते थे और इस नाते श्रीमती इंदिरा गांधी और अर्जुन सिंह जी के हम ज्यादा करीब आ गये थे। एक स्थिति तो ये भी आयी थी कि वर्ष १९८४ में श्रीमती इंदिरा गांधी जी मुझे प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाना चाहती थी किंतु वह एक दूसरी कहानी है। वासुदेव जी सदैव दुर्ग जिले में कांग्रेस कमेटी के जिला अध्यक्ष रहे और उस पद पर वे आज भी कायम हैं और वे उन व्यक्तियों में से एक हैं जिन्होंने हर उतार चढ़ाव, विषम परिस्थितियों, अच्छे और बुरे दिनों में कांग्रेस का कभी भी साथ नहीं छोड़ा।


वर्ष १९८५ में जब मैं विधान सभा का अध्यक्ष हुआ उस समय श्री वासुदेव जी विधान सभा के सदस्य के रुप में थे और वरिष्ठ होने के नाते मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रथम पंक्ति में उनकी आसंदी दी गई थी। मुझसे लगभग ३ साल बड़े होने और अन्य कांग्रेसजन तथा विधानसभा के सभासदों से वरिष्ठ होने के नाते मैं उन्हें विधानसभा में भी जामवंत कहकर पुकारता था। इसके पीछे मेरा आशय यही था कि जिस प्रकार से रामायण की कथा में सीतान्वेषण के एि निकले हुए वानर समूह को मार्गदर्शन करने के लिए जामवंत अपनी गुफा से बाहर आये थे और हनुमान को, जिन्हें अपनी शक्ति का ज्ञान नही था, उन्हें रावण की लंका में जाने के लिए प्रेरित किया। तो ऐसी प्रेरणा देने वाले व्यक्ति वास्तविक कार्य करने वाले व्यक्ति से ज्यादा महत्व रखते हैं। अगर जामवंत न होता तो यह भी माना जा सकता है कि शायद हनुमान को अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं हो पाता और समुद्र लांघ कर रावण की लंका तक नहीं पहुंच पाते। जिस प्रकार से सुंदर कांड में लिखा है कि -
जामवंत के वचन सुहाए, सुन हनुमंत हृदय अति भाए।


इसका संयोग इस प्रकार से भी मिलता है कि श्री वासुदेव चंद्राकर, संभवत: लोगों को ज्ञान नहीं होगा कि वे राम के बहुत बड़े भक्त हैं और रामायण के अत्यधिक प्रेमी हैं। रामायण की चौपाईयां उन्हें कण्ठस्थ याद हैं तथा विधानसभा में अनेक अवसरों पर जब उनका भाषण चल रहा हो या किसी और का भी भाषण चल रहा हो, तो वे पूरी कार्यवाही रोकर वे रामायण की संदर्भित विषय से उद्भुत चौपाईयों को अवश्य सुनाते थे और कई बार मैं स्वयं विधानसभा की कार्यवाही को थोड़ी देर के लिए रोकर श्री चन्द्राकर जी को यह कहता था कि - जामवंत जी, इस अवसर पर अपनी कोई चौपाई सुनाइए, तो वे चौपाई जरुर सुनाते थे।


चूंकि प्रात: वे बहुत जल्दी उठ जाते थे व भ्रमण में जाते थे तथा रामायण का नियमित पाठ करते थे। इसलिए जब विधानसभा में आते थे तो सामान्य तौर पर उनकी आँख लग जाती थी। अत: उनको कभी कभी बताना पड़ता था कि - जामवंत जी जागिए, आपका हनुमान लंका दहन करके वापस लौट आये हैं। वर्ष १९८५ से १९९० के बीच का उनका वह समय बहुत ही प्रेरणा-दायक रहा और उनकी बहुत सी स्मृतियां मेरे मन पटल पर हैं। उसके बाद वर्ष १९९० से १९९३ के बीच में सर्वदलीय छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण समिति का गठन किया गया। इसके अध्यक्ष स्वर्गीय श्री चन्दूलाल चन्द्राकर जी, तत्कालीन सांसद व प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष थे किन्तु उनके अध्यक्ष मंडल में सदस्य मैं भी था और श्री वासुदेव चन्द्राकर एवं अन्य अनेक लोग भी थे। हम लोगों ने बिलासपुर, राजनांदगांव, डोंगरगढ़, दुर्ग एवं कई स्थानों में जा-जाकर बैठकें की, सभाएं की तथा रैलियां निकाली। इसके अतिरिक्त पूरा छत्तीसगढ़ बंद किया गया तथा रायपुर में बहुत बड़ी स्वाभिमान रैली निकाली गयी और इस प्रकार से इस आंदोलन ने एक स्वरुप धारण किया जिसके फलस्वरुप वर्ष १९९३ में चुनाव के अवसर पर कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की बात की थी और बाद में इस पर विधानसभा में भी संकल्प पारित किया गया था। श्री वासुदेव चन्द्राकर जी छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की दिशा में सदैव जागरुक एवं प्रयत्नशील रहे। वर्ष १९९३ में मध्यप्रदेश शासन में केबिनेट मंत्री बनने के बाद भी मैं इस आंदोलन में जुड़ा रहा। सच पूछा जाय तो छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की आधार शिला रखने वाले जो कुछ थोड़े से लोग होंगे उनमें श्री वासुदेव चन्द्राकर जी का नाम अवश्य रहेगा। वे बहुत ही सीधे, सरल एवं ग्रामीण प्रकृति के नैष्ठिक कांग्रेस जन हैं। अब इस पीढ़ी के लोग धीरे-धीरे उठते चले जा रहे हैं। वे आदतन खादी धारी हैं। उनके ७५ वें जन्म दिवस के अवसर पर मैं अपनी विनम्र शुभकामनाएं अर्पित करता हूं। वे दीर्घायु हों एवं अधिक से अधिक अपनी सेवाएं छत्तीसगढ़ को देते रहें, यही मेरी कामना है।

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